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नेपालियों की शान बढ़ाता है गोरखपुरिया 'ढाका टोपी' , यहां बनता है राजशाही टोपी का कपड़ा


गोरखपुर : गोरखपुरिया दस्तकारी के नेपाली कायल हैं। एक नायाब हुनर है यहा के बुनकरों के हाथों में। नेपालियों के सिर पर जो राजशाही टोपी शोभती है, उसका कपड़ा गोरखपुर में बुना जाता है। कपड़ा बुनने के बाद यहां के बुनकर उसे भैरहवां, कृष्णानगर व उसके आसपास के क्षेत्रों में ले जाकर बेचते हैं। हालांकि बीच में सरकारी तंत्र न होने से उन्हें कपड़े की वाजिब कीमत नहीं मिल पाती है। यह हुनर उन्हें समृद्ध बनाने में पूरी तरह सक्षम है, लेकिन सरकारी उदासीनता के चलते उनका जीवन स्तर नहीं उठ पा रहा है। नेपाल की राजशाही टोपी ही नेपालियों की मूल पहचान है। यह वहां के लोगों की शान बढ़ाती है। इसके बिना कोई भी वहां की नागरिकता हासिल नहीं कर सकता। यह सब तो ठीक है, लेकिन शायद ही आप यह जानते होंगे कि नेपालियों को उनकी पहचान दिलाने में गोरखपुर का हाथ है। 

यहां के बुनकरों के हाथ से बने हुए कपड़े से ही नेपाल की राजशाही 'ढाका टोपी' तैयार होती है। इसे 'नेपाली पालपाली टोपी' भी कहते हैं। इनको बनाने के लिए कपड़ा गोरखपुर से ही जाता है। इसे खासकर नेपाल के पालपा अंचल (जिले) में ले जाया जाता है। यहां घर-घर में यह टोपी बनाई जाती है। एक व्यक्ति एक दिन में करीब तीन से चार टोपी बनाता है। गोरखपुर का गोरखनाथ, जाहिदाबाद, पुराना गोरखपुर, चक्सा हुसैन, पिपरापुर, इलाहीबाग आदि क्षेत्रों में बुनकरों का बड़ा तबका इस हुनर को जिंदा रखे हुए है। यहां के बुनकरों के हाथों में एक नायाब हुनर है, जिसने दो देशों के लोगों को करीब लाने में अहम भूमिका निभाई है। वैसे ही भारत और नेपाल की संस्कृति में काफी हद तक समानता नजर आती है। इन टोपियों ने पड़ोसी मुल्क में भारत की कला, संस्कृति और कलाकारों की एक अलग ही पहचान बना दी है। कृषि के बाद पूर्वांचल को हथकरघा उद्योग से ही पहचाना जाता है।

नेपाल में है कपड़े की काफी डिमांड
बुनकर फैयाज, डीबी थापा और मोहनलाल के मुताबिक, इस कपड़े की नेपाल में काफी डिमांड है। सरकारी ऑफिसों में नेपाली टोपी लगाकर जाना अनिवार्य है। वहां शादियों और किसी भी त्योहार पर घर के पुरूष टोपी पहनते हैं। वहीं महिलाएं ओढ़नी के तौर पर इसका कपड़ा इस्तेमाल करती हैं। इस कपड़े को वहां सब शुभ मानते हैं।

कैसे तैयार होती है नेपाली टोपी
गोरखपुर के रहने वाले बुनकर अलाउद्दीन ने बताया कि नेपाली टोपी में झंडीनुमा डिजाइन होती है। इसे बनाने के लिए सबसे पहले दफ्ती पर इसके डिजाइन का ग्राफ तैयार किया जाता है। इसके बाद यह डिजाइन बनारस में काटी जाती है। इसे सिल कर जकाट तैयार किया जाता है। जकाट को पावरलूम पर लगाकर नेपाली टोपी के कपड़े की बिनाई की जाती है। एक मीटर कपड़े की कीमत गोरखपुर में 180 से 200 रुपए है। इसमें चार टोपियां बनाई जाती हैं। नेपाल में यह टोपी 250 रुपए से 300 रुपए तक में बिकती है। यह कई रंगों में और कई डिजाइनों में बनाई जाती है।

कम पैसे की वजह से नहीं गए नेपाल
बुनकर अलाउद्दीन ने बताया कि 'ढाका टोपी' नेपाल में सबसे पहले खड्डी पर बनाई जाती थी। नेपाली व्यापारियों का गोरखपुर आना-जाना रहता था। उसी दौरान कुछ नेपाली व्यापरियों ने यहां के बुनकरों को नेपाल में हथकरघे की शुरुआत करने के लिए कहा। काम के एवज में पैसे कम मिलने की वजह से वहां कोई नहीं गया।

सरकार के साथ से बदल सकते हैं हालात
स्थानीय बुनकर अलाउद्दीन ने कहा कि सरकार की गलत नीतियों की वजह से आज हथकरघा उद्योग बंद होने के कगार पर है। पिछली सरकार ने बुनकरों के लिए सूत कार्ड बनाया था, जिससे कम दाम पर सूत मिल सके, लेकिन जब यह कार्ड बना तो सूत नहीं मिला। इस नेपाली टोपी के कपड़े की बिनाई करके अच्छी कमाई हो जाती है। यदि सरकार का साथ मिल जाए, तो बुनकरों के हालात बदल सकते हैं।

नेपाली टोपी का प्रचलित नाम ढाका टोपी भी
नेपाली टोपी, टोपी का एक प्रकार है जो नेपाल में बहुत प्रचलित है। इसे ढाका टोपी भी कहते हैं। यह टोपी जिस कपड़े से बनाई जाती है उसे ढाका कहते हैं, इसलिए इसका नाम ढाका टोपी पड़ा है। इस कपड़े का प्रयोग एक प्रकार की चोली बनाने में भी किया जाता है जिसे नेपाली में ढाका-को-चोलो कहते हैं। नेपाली टोपी का निर्माण सर्वप्रथम गणेश मान महर्जन ने नेपाल के पाल्पा जिले में किया था। यह टोपी नेपाल की राष्ट्रीय टोपी है। इस प्रकार की टोपियां अफगानिस्तान व इंडोनेशिया में भी पहनी जाती हैं। 

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