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गोरखालैंड को जानिए


गोरखालैंड बनने पर इतनी अड़चने क्यों ? आज भारत विश्व का सिरमौर बनने की ओर बढ रहा है फिर भी देश के कई भू भाग विकास की राह ताक रहे है क्या विकास केवल कुछ ही प्रदेशो में सिमटा रहेगा क्यों छत्तीसगढ़ ,झारखण्ड और उत्तराखंड में समुचित विकास उनके राज्यों से विघटन के बाद ही शुरू हो पाया ? देश की जनता को इस तथ्यों से अवगत कराना अत्यंत ज़रूरी है की भारत के कई बड़े भूभाग जैसे बुंदेलखंड, विदर्भ,तेलंगाना क्यों बेहद पिछड़े है ? क्यों इन्ही जगहों से किसान आत्महत्या कर रहे है ? इन सबका कारण इन क्षेत्रो का बड़े राज्यों में होना है । संविधान में यह कही नही कहा गया है की छोटे राज्यों का निर्माण ग़लत है या संविधान विरोधी है एवं देश के संप्रभुत्ता में कोई व्यापक असर करती हो । अब बात करते है गोरखालैंड के अलग राज्य बनने हेतु पूर्व में किए गए -

सन अप्रैल १९४७ को अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के दो गोरखा सदस्यों गणेशलाल सुब्बा और रतनलाल ब्रह्मं ने पृथक गोर्खास्थान राज्य के लिए अद्भुत ज्ञापन अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू एवं उप राष्ट्रपती को सौपा था – गोर्खास्थान राज्य की रुपरेखा उस समय के दार्जिलिंग जिला, नेपाल के कुछ हिस्सों के साथ स्वतंत्र देश सिक्किम के उत्तरी जिलो को सम्मिलित करके बनाया गया था जिसका थोड़ा बहुत हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान के सीमा से लगा हुआ था ।

सन् 1940 के दशक के दौरान, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) आयोजित गोरखा चाय श्रमिकों. 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग की प्रस्तुतियों में, भाकपा पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग के लिए, एक अनुसूचित भाषा के रूप में नेपाली की मान्यता के साथ क्षेत्रीय स्वायत्तता सहाययुक्त. अखिल भारतीय गोरखा लीग के क्षेत्र में केंद्र सरकार के अधीन एक केन्द्र शासित प्रदेश बनाने को प्राथमिकता दी.

तब के दौरान सुभाष घीसिंग के गोरखालैंड राज्य के गठन की मांग उठाई के 80 और दूअर्स और सिलीगुड़ी तराई के दूरस्थ क्षेत्रों , दार्जिलिंग की पहाड़ियों से, जातीय गोरखाओं के एक बड़ी आबादी के साथ बाहर नक़्क़ाशीदार किया जाना है. इस गोरखालैंड आंदोलन में १९८० के दशक में एक हिंसक मोड़ तब आया जब सुभाष घिशिंग के नेतृत्व में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने राज्य का दर्जा पाने के लिए एक मांग जारी किया जो बाद में राज्य के वामदलों द्वारा दमनपूर्ण अत्याचारों के पश्चात हिंसक हो उठा जिसमे 1200 से अधिक निर्दोष गोरखा लोगों की मौते हुई । इस आंदोलन के कारण दार्जिलिंग राज्य ४ वर्षो तक अशान्त क्षेत्र रहा ।सन १९८८ में केन्द्र सरकार के दखल देने के बाद दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद गठन के साथ हिंसात्मक आन्दोलन एवं सरकारी दमन का समापन हुआ।

हाल के घटनाक्रम

२००७ के अंत में भारतीय संघ के भीतर एक अलग राज्य की मांग ने गोरखा नेता श्री बिमल गुरूंग ने नवगठित पार्टी के अंतर्गत गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने फिर से आन्दोलन शुरू किया । यह आंदोलन 2010 तक एक अलग राज्य बनाने की शपथ लिए है ।मोर्चा ने विरोध के हिंसक रूप के बजाये बिजली और फोन बिल सहित सरकार को राज्य करों का भुगतान करने के लिए मना करने का आह्वान किया। लोग विरोध करने के लिए पश्चिम बंगाल के वाहन नंबर बदलने के लिए एक आन्दोलन चलाये हुए है जो काफ़ी हद तक सफल होती दिखायी दे रही है
दार्जिलिंग की पहाड़ियों में प्रशासनिक मशीनरी, सरकार के कार्यालयों से अधिकांश होअर्डिंग तोड़ दिया गया है, और यहां तक कि पुलिस ने जिले में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए असमर्ताथा दिखायी है। केन्द्र ने पश्चिम बंगाल सरकारों को और मोर्चा नेताओं के साथ एक त्रिपक्षीय बैठक के लिए इस मुद्दे को हल करने के लिए बुलाया है, हालांकि सफलता दोनों पक्ष मोर्चा और साथ ही पश्चिम बंगाल सरकार को कम ही लगती है । एक हार्ड लाइन पर जा रहे इस आन्दोलन को मोर्चा ने बंगाल के आगे गोरखालैंड से कम पर विचार करने के लिए मना कर दिया है।गोरखालैंड के समर्थन के लिए भी गोरखालैंड के बाहर के क्षेत्रों में देखा गया है। सिक्किम की मुख्यधारा की पार्टियों खुलेआम गोरखालैंड आंदोलन का समर्थन किया है और एकजुटता दिखाई है ।

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