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गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का बढता वर्चस्व



गोरखा पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट के सुप्रीमो सुभाष घीसिंग कभी गोरखालैंड के पर्याय थे। दो दशक पहले वह और उनके गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने उस दार्जिलिंग क्षेत्र में अपने ही राज्य के लिए संघर्ष शुरू किया और पश्चिम बंगाल तथा भारत की सरकार ने स्वायत्त प्रदत्त दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद की अनुमति प्रदान की जिसमें घीसिंग को अध्यक्ष बनाने के साथ प्रथक गोरखालैंड राज्य मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया था को (मार्च 2008 अप्रासंगिक रूप) इस्तीफा देना पड़ा था ।घीसिंग का वर्चस्व पूरे गोरखालैंड में धीरे धीरे कम होता जा रहा है , अक्टूबर 2007 से एक नए आंदोलन की शुरुवात करके- गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने विमल गुरुंग की अगुवाई में - पश्चिम बंगाल गोरखाओं के विशाल बहुमत का समर्थन बहुत कम समय में प्राप्त कर लिया है। मोर्चा के सन २०१० तक गोरखालैंड राज्य के अस्तित्व में आने के संकल्प तथा सकारात्मक दिशा की ओर बढ रहे इस आन्दोलन का क्या होता है यह तो भविष्य बताएगा लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार और केन्द्र सरकार को भी इस मुद्दे पर विचार करने आवश्यकता है । हर बार दिल्ली , कोलकाता में होने वाली गोलमेज बैठकों से कुछ हल क्यों नही निकल पा रहा है और बार बार बंगाल के मुख्यमंत्री द्वारा गोरखालैंड के आन्दोलन पर प्रश्नचिंह लगाने वाले बयानों से भी बातचीत धरतीपकड़ के आसन पर कब तक बैठी रहेगी ?
वैसे तो गोरखालैंड की जनता से १९९९ की केन्द्र सरकार ने अलग राज्य के मांग में निरा आश्वासन देने के साथ जो सौतेला रवैय्या अपनाया था वो बेहद निराशाजनक था क्योंकि २००० में ३ राज्य का उद्भव एक साथ हुआ था जबकि होना गोरखालैंड को भी अलग राज्य था । फिर भी दार्जिलिंग एवं उसके आसपास के जिलो के निवासियों ने गोरखालैंड के आन्दोलन को ज्वलंत करके २०१० तक प्रथक राज्य की परिकल्पना का संकल्प लिया है उससे तो यह लगता है की केन्द्र और बंगाल सरकार अब की बार इस मुद्दे को आसानी से दरकिनार नही कर पाएंगे
दीपक राई

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