बॉलीवुड के पहले गोरखा फिल्म निर्देशक बीएस थापा : “देख लो इश्क़ का मरतबा देख लो”
बी.एस.थापा ! बचपन से सुनते आए इस नाम से मैं बेहद प्रभावित था, हालांकि न तो कभी मैं उन शख़्स से मिला था और न ही उन्हें पहचानता था। बस इतना जानता था कि मेरे शहर के रहने वाले कोई बी.एस.थापा मुम्बई में रहते हैं और फ़िल्में बनाते हैं। उनका फ़िल्मों से जुड़ा होना ही उनसे मेरे प्रभावित होने की वजह थी। फिर बरसों बाद मैं खुद भी मुम्बई महानगर का हिस्सा बन गया।
थापा जी से मेरी पहली मुलाक़ात साल 2002 में मशहूर पोस्टर संग्रहकर्ता, वर्तमान में ओसियान कम्पनी के उपाध्यक्ष और ‘बीते हुए दिन’ के अभिन्न अंग श्री एस.एम.एम. औसजा के ज़रिए एम.आई.डी.सी.-अंधेरी (पूर्व) स्थित जैमिनी स्टूडियो में हुई थी जहां श्री औसजा उन दिनों बतौर कार्यकारी निर्माता काम कर रहे थे। थापा जी जैमिनी स्टूडियो के फ़िल्म स्कूल ‘डिजिटल एकैडमी’ में अभिनय, पटकथा लेखन और निर्देशन पढ़ाते थे और मैं जैमिनी स्टूडियो द्वारा विभिन्न फिल्मी हस्तियों पर बनाए जा रहे वृत्तचित्रों का शोध और लेखन कर रहा था। बी.एस.थापा जी से मैं जल्द ही घुलमिल गया। हमारे एक ही शहर से होने के अलावा थापा जी का दोस्ताना व्यवहार भी इसकी एक बड़ी वजह था। डिजिटल एकैडमी में हम अक्सर मिलते थे और हमारी बातों का केन्द्र हिंदी सिनेमा का इतिहास और हमारा शहर हुआ करते थे। लेकिन कुछ समय बाद बी.एस.थापा जी डिजिटल एकैडमी छोड़कर ज़ी टी.वी. समूह के फ़िल्म स्कूल ‘ज़ीमा’ में पढ़ाने चले गए और हमारा सम्पर्क टूट गया।
बरसों बाद साल 2010 में एक रोज़ अचानक ही थापा जी मुझे मेरे घर के क़रीब नज़र आए। मैं बेहद गर्मजोशी से उनसे मिला लेकिन शायद उम्र का असर था कि थापा जी मुझे पहचान ही नहीं पाए। हालांकि उन्होंने ख़ुद को संयत रखने की बहुत कोशिश की लेकिन उनका असमंजस मुझसे छिप नहीं पाया। बातचीत में पता चला कि वो कुछ ही दिनों पहले चार बंगला, अंधेरी का इलाक़ा छोड़कर सपत्नीक मीरा रोड पर रहने आ गए हैं और हमारी बिल्डिंग के पीछे मौजूद वर्षा टॉवर में रहते हैं। उन्होंने मुझे अपने घर आने का न्यौता दिया और वादा किया वो भी जल्द ही मेरे घर पर आएंगे। उनसे 2-3 मुलाक़ातें और भी हुईं लेकिन न तो मैं उनके घर जा पाया और न ही वो अपना वादा निभा पाए।
साल 2012 में ‘बीते हुए दिन’ की शुरूआत के साथ ही मैंने बी.एस.थापा जी का इंटरव्यू करना चाहा तो पता चला वो डेढ़-दो साल पहले ही वर्षा टॉवर छोड़ चुके हैं। वो कहां गए और अब कहां हैं, इस बात का पता किसी को नहीं था। उनका मोबाईल नम्बर भी मेरे पास नहीं था। मैं लगातार उन्हें तलाशता रहा। डिजिटल एकैडमी और महालक्ष्मी स्थित फ़ेमस स्टूडियो में ‘डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन’ से लेकर अंधेरी स्थित ‘फ़िल्म एंड टी.वी. डायरेक्टर्स एसोसिएशन’ के ऑफ़िसों तक में जाकर पूछताछ की लेकिन बी.एस.थापा जी के बारे में कुछ भी पता नहीं चल पाया। उनकी उम्र को देखते हुए मन में नकारात्मक विचार भी आने लगे थे। लेकिन अचानक ही एक रोज़ मेरी तलाश ख़ुद-ब-ख़ुद पूरी हो गयी।
कुछ ही महिनों पहले गुजराती नाटकों के जाने-माने अभिनेता, वयोवृद्ध श्री महेश उदेशी जी से मेरा सम्पर्क हुआ और हमारा मिलना-जुलना शुरू हो गया। एक रोज़ हम दोनों गोरेगांव के एक रेस्टोरेंट में बैठे थे कि ऑर्डर लेने आए उम्रदराज़ वेटर को देखकर महेश उदेशी जी चौंक पड़े। वो वेटर दरअसल एक सिनेमैटोग्राफर थे जो अपने दौर के कई नामी सिनेमैटोग्राफ़रों के साथ असिस्टेंट से लेकर चीफ़ असिस्टेंट तक कई बड़ी फ़िल्में करने के बाद स्वतंत्र रूप से भी कुछ फ़िल्में कर चुके थे। लेकिन बदले हालात ने उन्हें वेटर का काम करने पर मजबूर कर दिया था।
(उनका सम्मान बनाए रखने के लिए उनकी पहचान को छुपाए रखना ज़रूरी है और इसीलिए उनकी फ़िल्मों और उनसे जुड़े तमाम वरिष्ठ सिनेमैटोग्राफ़रों के नामों का ख़ुलासा करना उचित नहीं होगा।)
थापा जी से मेरी पहली मुलाक़ात साल 2002 में मशहूर पोस्टर संग्रहकर्ता, वर्तमान में ओसियान कम्पनी के उपाध्यक्ष और ‘बीते हुए दिन’ के अभिन्न अंग श्री एस.एम.एम. औसजा के ज़रिए एम.आई.डी.सी.-अंधेरी (पूर्व) स्थित जैमिनी स्टूडियो में हुई थी जहां श्री औसजा उन दिनों बतौर कार्यकारी निर्माता काम कर रहे थे। थापा जी जैमिनी स्टूडियो के फ़िल्म स्कूल ‘डिजिटल एकैडमी’ में अभिनय, पटकथा लेखन और निर्देशन पढ़ाते थे और मैं जैमिनी स्टूडियो द्वारा विभिन्न फिल्मी हस्तियों पर बनाए जा रहे वृत्तचित्रों का शोध और लेखन कर रहा था। बी.एस.थापा जी से मैं जल्द ही घुलमिल गया। हमारे एक ही शहर से होने के अलावा थापा जी का दोस्ताना व्यवहार भी इसकी एक बड़ी वजह था। डिजिटल एकैडमी में हम अक्सर मिलते थे और हमारी बातों का केन्द्र हिंदी सिनेमा का इतिहास और हमारा शहर हुआ करते थे। लेकिन कुछ समय बाद बी.एस.थापा जी डिजिटल एकैडमी छोड़कर ज़ी टी.वी. समूह के फ़िल्म स्कूल ‘ज़ीमा’ में पढ़ाने चले गए और हमारा सम्पर्क टूट गया।
बरसों बाद साल 2010 में एक रोज़ अचानक ही थापा जी मुझे मेरे घर के क़रीब नज़र आए। मैं बेहद गर्मजोशी से उनसे मिला लेकिन शायद उम्र का असर था कि थापा जी मुझे पहचान ही नहीं पाए। हालांकि उन्होंने ख़ुद को संयत रखने की बहुत कोशिश की लेकिन उनका असमंजस मुझसे छिप नहीं पाया। बातचीत में पता चला कि वो कुछ ही दिनों पहले चार बंगला, अंधेरी का इलाक़ा छोड़कर सपत्नीक मीरा रोड पर रहने आ गए हैं और हमारी बिल्डिंग के पीछे मौजूद वर्षा टॉवर में रहते हैं। उन्होंने मुझे अपने घर आने का न्यौता दिया और वादा किया वो भी जल्द ही मेरे घर पर आएंगे। उनसे 2-3 मुलाक़ातें और भी हुईं लेकिन न तो मैं उनके घर जा पाया और न ही वो अपना वादा निभा पाए।
साल 2012 में ‘बीते हुए दिन’ की शुरूआत के साथ ही मैंने बी.एस.थापा जी का इंटरव्यू करना चाहा तो पता चला वो डेढ़-दो साल पहले ही वर्षा टॉवर छोड़ चुके हैं। वो कहां गए और अब कहां हैं, इस बात का पता किसी को नहीं था। उनका मोबाईल नम्बर भी मेरे पास नहीं था। मैं लगातार उन्हें तलाशता रहा। डिजिटल एकैडमी और महालक्ष्मी स्थित फ़ेमस स्टूडियो में ‘डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन’ से लेकर अंधेरी स्थित ‘फ़िल्म एंड टी.वी. डायरेक्टर्स एसोसिएशन’ के ऑफ़िसों तक में जाकर पूछताछ की लेकिन बी.एस.थापा जी के बारे में कुछ भी पता नहीं चल पाया। उनकी उम्र को देखते हुए मन में नकारात्मक विचार भी आने लगे थे। लेकिन अचानक ही एक रोज़ मेरी तलाश ख़ुद-ब-ख़ुद पूरी हो गयी।
कुछ ही महिनों पहले गुजराती नाटकों के जाने-माने अभिनेता, वयोवृद्ध श्री महेश उदेशी जी से मेरा सम्पर्क हुआ और हमारा मिलना-जुलना शुरू हो गया। एक रोज़ हम दोनों गोरेगांव के एक रेस्टोरेंट में बैठे थे कि ऑर्डर लेने आए उम्रदराज़ वेटर को देखकर महेश उदेशी जी चौंक पड़े। वो वेटर दरअसल एक सिनेमैटोग्राफर थे जो अपने दौर के कई नामी सिनेमैटोग्राफ़रों के साथ असिस्टेंट से लेकर चीफ़ असिस्टेंट तक कई बड़ी फ़िल्में करने के बाद स्वतंत्र रूप से भी कुछ फ़िल्में कर चुके थे। लेकिन बदले हालात ने उन्हें वेटर का काम करने पर मजबूर कर दिया था।
(उनका सम्मान बनाए रखने के लिए उनकी पहचान को छुपाए रखना ज़रूरी है और इसीलिए उनकी फ़िल्मों और उनसे जुड़े तमाम वरिष्ठ सिनेमैटोग्राफ़रों के नामों का ख़ुलासा करना उचित नहीं होगा।)
रेस्टोरेंट में ग्राहकों की भीड़ और ड्यूटी पर होने की वजह से वो हमसे ज़्यादा बात नहीं कर पाए। लेकिन जितनी भी बातचीत हुई, उससे मुझे पता चल चुका था कि वो नेपाली मूल के हैं। चूंकि थापा जी भी नेपाली मूल के थे इसलिए मैंने तुरंत उन वेटर से पूछा, क्या वो डायरेक्टर बी.एस.थापा जी को जानते हैं? और उनके कुछ कहने से पहले ही महेश उदेशी जी बोल पड़े, कौन बी.एस.थापा? ‘हिमालय से ऊंचा’ वाले? वो तो चार बंगला में रहते हैं। और मेरी बरसों की तलाश एकाएक पूरी हो गयी। दरअसल महेश उदेशी जी की बेटी और बी.एस.थापा जी की बेटी सिमरन सुबेदी क़रीबी दोस्त हैं। महेश उदेशी जी के ज़रिए मेरा सम्पर्क सिमरन सुबेदी से हुआ तो पता चला वो मीरा रोड पर मेरे घर के पास ही रहती हैं। आख़िर सिमरन के ज़रिए मैं बी.एस.थापा जी तक पहुंचने में कामयाब हो ही गया। थापा जी का इंटरव्यू दो बैठकों में हुआ। 24 अगस्त 2015 की शाम चार बंगला-अंधेरी स्थित उनके घर पर और 26 अगस्त की शाम मीरा रोड में, सिमरन के घर पर।
3 जुलाई 1923 को गोर्खाली मौहल्ला, न्यू कैंट रोड, देहरादून के एक नेपाली मूल के परिवार में जन्मे भीम सिंह (बी.एस.) थापा के पिता ब्रिटिश फ़ौज में थे और उनकी मां साधारण गृहिणी थीं। 2 बहनों और 3 भाईयों में बी.एस.थापा सबसे छोटे थे। थापा जी कहते हैं, “एक आम गोरखा परिवार की तरह हमारा परिवार भी फ़ौजियों का था। पिता के अलावा मेरी दोनों बहनों के पति और मेरे बड़े भाई भी फ़ौज में थे। मेरे मंझले भाई का युवावस्था में ही लम्बी बीमारी से निधन हो गया था। मुझसे भी यही उम्मीद की जाती थी कि स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं भी फ़ौज में भर्ती हो जाऊंगा। लेकिन मैं ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ना चाहता था।“
देहरादून के मिशन स्कूल से 10वीं और डी.ए.वी.इंटर कॉलेज से 12वीं करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बी.एस.थापा लखनऊ चले गए। 4 साल लखनऊ में, हॉस्टल में रहकर उन्होंने बी.ए. और एम.ए. (पॉलिटिकल साईंस) की पढ़ाई की। वो बताते हैं, “उस ज़माने में बी.ए.-एम.ए. की पढ़ाई के साथ साथ एल.एल.बी. भी किया जा सकता था सो उन चार सालों में मैंने एल.एल.बी. भी कर लिया। उधर बी.ए. करते-करते मेरी शादी कर दी गयी। पत्नी सरस्वती दिल्ली की थीं और माता-पिता की इकलौती संतान थीं। उनके पिता का टूर्स एण्ड ट्रैवल्स का काफ़ी बड़ा कारोबार था। उनकी मां बहुत पहले गुज़र चुकी थीं और घर में सिर्फ़ वो और उनके पिता थे, इसलिए लखनऊ से पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे दिल्ली आ जाना पड़ा।“ सिनेमा की ओर बी.एस.थापा जी का रूझान हमेशा से ही था। मोतीलाल उनके पसंदीदा अभिनेता थे। लखनऊ में श्री थापा रेडियो नाटकों में हिस्सा लेते थे और दिल्ली आने पर वो रंगमंच से भी जुड़ गए। उस दौरान उन्होंने कई नाटकों में अभिनय किया। उन्हीं दिनों युवाओं को सिनेमा की ओर आकर्षित करने के लिए भारत सरकार की ओर से स्कॉलरशिप की घोषणा की गयी।
बी.एस.थापा बताते हैं, “चेतन आनंद के एक दोस्त दिल्ली में रंगमंच से जुड़े हुए थे। मेरी साफ़ ज़ुबान और कलात्मक रूझान को देखते हुए वो कहते थे कि तुम सिनेमा के लिए बने हो। उन्होंने मुझे चेतन आनंद से मिलवाया। मैंने चेतन आनंद से उनके साथ काम करने की इच्छा ज़ाहिर की तो उन्होंने साफ़ शब्दों में कह दिया, मैं तुम्हें अपने साथ तभी रखूंगा अगर तुम्हें स्कॉलरशिप मिलेगी, वरना नहीं। किस्मत से मुझे स्कॉलरशिप के लिए चुन लिया गया। भारत सरकार की ओर से पूछा गया कि मैं किस फिल्मकार के साथ काम करना चाहूंगा? और मेरी इच्छा को देखते हुए मुझे चेतन आनंद के पास भेज दिया गया। इस तरह साल 1949 में मैं दिल्ली से मुम्बई चला आया। उन दिनों चेतन आनंद फ़िल्म ‘अफ़सर’ बना रहे थे जिसमें मैं बतौर एप्रेंटिस काम सीखने लगा।“
(92 साल के हो चुके श्री बी.एस.थापा की याददाश्त पर उम्र का स्वाभाविक असर साफ़ नज़र आता है। पुरानी बातों को याद करने में उन्हें बहुत परेशानी होती है और बहुत सी बातें अब उन्हें याद भी नहीं रहीं। यही वजह है कि उनका इंटरव्यू हमें दो सिटिंग्स में करना पड़ा। कई तथ्यों की पुष्टि के लिए हमें थापा जी के निकट सहयोगी रह चुके श्री एस.एम.एम.औसजा और श्री जय शाह से भी सम्पर्क करना पड़ा।)
श्री एस.एम.एम.औसजा के बाद जैमिनी स्टूडियो-डिजिटल एकैडमी में उनकी जगह श्री जय शाह आ गए थे जो वर्तमान में ‘शेमारू वीडियो’ में डिप्टी जनरल मैनेजर के पद पर हैं। जय शाह बताते हैं, “उस ज़माने में फ़िल्मों में थापा जी जैसे पढ़े-लिखे लोग कम ही हुआ करते थे। श्री थापा को अपनी कानून की डिग्री का बहुत लाभ मिला। चूंकि वो एक अच्छे लेखक भी थे इसलिए जब भी किसी फ़िल्म में कोर्ट सीन होता था तो उस सीन को लिखवाने या सलाह लेने के लिए फ़िल्मकार थापा जी को ही याद करते थे। इसी सिलसिले में दक्षिण भारत के मशहूर निर्माता-निर्देशक और मद्रास स्थित जैमिनी स्टूडियो के मालिक एस.एस.वासन ने भी एक बार थापा जी को ख़ासतौर से मद्रास बुलाया था।“
(यहां हम स्पष्ट करना चाहेंगे कि मद्रास स्थित ‘जैमिनी स्टूडियो’ का एम.आई.डी.सी.-अंधेरी (पूर्व), मुम्बई स्थित ‘जैमिनी स्टूडियो’ के साथ कोई भी रिश्ता नहीं है।दोनों बिल्कुल अलग संस्थान हैं और दोनों के ही मालिक भी अलग अलग हैं।)
3 जुलाई 1923 को गोर्खाली मौहल्ला, न्यू कैंट रोड, देहरादून के एक नेपाली मूल के परिवार में जन्मे भीम सिंह (बी.एस.) थापा के पिता ब्रिटिश फ़ौज में थे और उनकी मां साधारण गृहिणी थीं। 2 बहनों और 3 भाईयों में बी.एस.थापा सबसे छोटे थे। थापा जी कहते हैं, “एक आम गोरखा परिवार की तरह हमारा परिवार भी फ़ौजियों का था। पिता के अलावा मेरी दोनों बहनों के पति और मेरे बड़े भाई भी फ़ौज में थे। मेरे मंझले भाई का युवावस्था में ही लम्बी बीमारी से निधन हो गया था। मुझसे भी यही उम्मीद की जाती थी कि स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं भी फ़ौज में भर्ती हो जाऊंगा। लेकिन मैं ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ना चाहता था।“
देहरादून के मिशन स्कूल से 10वीं और डी.ए.वी.इंटर कॉलेज से 12वीं करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बी.एस.थापा लखनऊ चले गए। 4 साल लखनऊ में, हॉस्टल में रहकर उन्होंने बी.ए. और एम.ए. (पॉलिटिकल साईंस) की पढ़ाई की। वो बताते हैं, “उस ज़माने में बी.ए.-एम.ए. की पढ़ाई के साथ साथ एल.एल.बी. भी किया जा सकता था सो उन चार सालों में मैंने एल.एल.बी. भी कर लिया। उधर बी.ए. करते-करते मेरी शादी कर दी गयी। पत्नी सरस्वती दिल्ली की थीं और माता-पिता की इकलौती संतान थीं। उनके पिता का टूर्स एण्ड ट्रैवल्स का काफ़ी बड़ा कारोबार था। उनकी मां बहुत पहले गुज़र चुकी थीं और घर में सिर्फ़ वो और उनके पिता थे, इसलिए लखनऊ से पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे दिल्ली आ जाना पड़ा।“ सिनेमा की ओर बी.एस.थापा जी का रूझान हमेशा से ही था। मोतीलाल उनके पसंदीदा अभिनेता थे। लखनऊ में श्री थापा रेडियो नाटकों में हिस्सा लेते थे और दिल्ली आने पर वो रंगमंच से भी जुड़ गए। उस दौरान उन्होंने कई नाटकों में अभिनय किया। उन्हीं दिनों युवाओं को सिनेमा की ओर आकर्षित करने के लिए भारत सरकार की ओर से स्कॉलरशिप की घोषणा की गयी।
बी.एस.थापा बताते हैं, “चेतन आनंद के एक दोस्त दिल्ली में रंगमंच से जुड़े हुए थे। मेरी साफ़ ज़ुबान और कलात्मक रूझान को देखते हुए वो कहते थे कि तुम सिनेमा के लिए बने हो। उन्होंने मुझे चेतन आनंद से मिलवाया। मैंने चेतन आनंद से उनके साथ काम करने की इच्छा ज़ाहिर की तो उन्होंने साफ़ शब्दों में कह दिया, मैं तुम्हें अपने साथ तभी रखूंगा अगर तुम्हें स्कॉलरशिप मिलेगी, वरना नहीं। किस्मत से मुझे स्कॉलरशिप के लिए चुन लिया गया। भारत सरकार की ओर से पूछा गया कि मैं किस फिल्मकार के साथ काम करना चाहूंगा? और मेरी इच्छा को देखते हुए मुझे चेतन आनंद के पास भेज दिया गया। इस तरह साल 1949 में मैं दिल्ली से मुम्बई चला आया। उन दिनों चेतन आनंद फ़िल्म ‘अफ़सर’ बना रहे थे जिसमें मैं बतौर एप्रेंटिस काम सीखने लगा।“
(92 साल के हो चुके श्री बी.एस.थापा की याददाश्त पर उम्र का स्वाभाविक असर साफ़ नज़र आता है। पुरानी बातों को याद करने में उन्हें बहुत परेशानी होती है और बहुत सी बातें अब उन्हें याद भी नहीं रहीं। यही वजह है कि उनका इंटरव्यू हमें दो सिटिंग्स में करना पड़ा। कई तथ्यों की पुष्टि के लिए हमें थापा जी के निकट सहयोगी रह चुके श्री एस.एम.एम.औसजा और श्री जय शाह से भी सम्पर्क करना पड़ा।)
श्री एस.एम.एम.औसजा के बाद जैमिनी स्टूडियो-डिजिटल एकैडमी में उनकी जगह श्री जय शाह आ गए थे जो वर्तमान में ‘शेमारू वीडियो’ में डिप्टी जनरल मैनेजर के पद पर हैं। जय शाह बताते हैं, “उस ज़माने में फ़िल्मों में थापा जी जैसे पढ़े-लिखे लोग कम ही हुआ करते थे। श्री थापा को अपनी कानून की डिग्री का बहुत लाभ मिला। चूंकि वो एक अच्छे लेखक भी थे इसलिए जब भी किसी फ़िल्म में कोर्ट सीन होता था तो उस सीन को लिखवाने या सलाह लेने के लिए फ़िल्मकार थापा जी को ही याद करते थे। इसी सिलसिले में दक्षिण भारत के मशहूर निर्माता-निर्देशक और मद्रास स्थित जैमिनी स्टूडियो के मालिक एस.एस.वासन ने भी एक बार थापा जी को ख़ासतौर से मद्रास बुलाया था।“
(यहां हम स्पष्ट करना चाहेंगे कि मद्रास स्थित ‘जैमिनी स्टूडियो’ का एम.आई.डी.सी.-अंधेरी (पूर्व), मुम्बई स्थित ‘जैमिनी स्टूडियो’ के साथ कोई भी रिश्ता नहीं है।दोनों बिल्कुल अलग संस्थान हैं और दोनों के ही मालिक भी अलग अलग हैं।)
फिल्मकार प्रकाश मेहरा के साथ थापा जी |
चेतन आनंद के साथ रहकर फ़िल्म निर्माण के विभिन्न पहलुओं को समझने के अलावा बी.एस.थापा जी ने उनकी ‘अंजलि’, ‘अर्पण’ (दोनों 1957) और ‘किनारे किनारे’ (1963) जैसी फिल्मों में अभिनय भी किया। थापा जी बताते हैं, “फ़िल्म ‘किनारे किनारे’ के संगीतकार जयदेव जी के चर्चगेट स्थित घर पर काम के सिलसिले में अक्सर मेरा जाना-आना होता था। जयदेव उन दिनों सुनील दत्त की फ़िल्म ‘मुझे जीने दो’ का भी संगीत तैयार कर रहे थे। उनके ज़रिए मेरी मुलाक़ात सुनील दत्त से हुई जो ‘मुझे जीने दो’ के साथ ही ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ भी बना रहे थे। मुम्बई के ‘नानावटी कांड’ पर बनी ये फ़िल्म एक कोर्ट रूम ड्रामा थी। सुनील दत्त ने इस फ़िल्म के तमाम कोर्ट सीन लिखने की ज़िम्मेदारी मुझे दी। यहां से सुनील दत्त के साथ हुई मेरी दोस्ती हमेशा ही बनी रही। ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ भी साल 1963 में रिलीज़ हुई थी। आगे चलकर मैंने सुनील दत्त द्वारा निर्मित और निर्देशित फ़िल्म ‘रेशमा और शेरा’ (1972) में एसोसिएट डायरेक्टर की ज़िम्मेदारी निभाई।“
(लम्बे अरसे तक दैनिक राजस्थान पत्रिका से जुड़े रहे सुप्रसिद्ध फ़िल्म पत्रकार श्री एम.डी. सोनी के अनुसार 'अंजलि' और 'अर्पण' अलग अलग फ़िल्में नहीं हैं बल्कि 'अंजलि' (1957) का ही नाम साल 1984 में बदलकर 'अर्पण' रख दिया गया था।)
साल 1966 में बी.एस.थापा जी की बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म ‘माईती घर’ रिलीज़ हुई। इस फिल्म की मुख्य भूमिकाओं में माला सिंहा और सी.पी.लोहानी थे। संगीत जयदेव का था। अभिनेता सुनील दत्त और राजिंदर नाथ इस फ़िल्म में मेहमान कलाकार थे और इसमें थापा जी ने भी एक अहम भूमिका निभाई थी। नेपाली भाषा की, प्राईवेट बैनर में बनी यह पहली फ़िल्म प्लैटिनम जुबली हिट थी और इसके गीत भी बहुत पसंद किए गए थे। ‘माईती घर’ की शूटिंग के दौरान ही माला सिंहा और सी.पी.लोहानी में मोहब्बत हुई थी और साल 1968 में उन्होंने शादी कर ली थी।
साल 1973 में बी.एस.थापा जी ने फ़िल्म ‘मन जीते जग जीत’ और 1974 में ‘दु:ख भंजन तेरा नाम’ का निर्देशन किया। पंजाबी भाषा की इन दोनों फ़िल्मों का निर्माण 1950 और 60 के दशक के मशहूर संगीतकार एस.मोहिंदर ने अपने मौसेरे भाई और मशहूर पंजाबी कवि कंवर महेन्द्र सिंह बेदी के साथ मिलकर किया था। साल 1975 में बी.एस.थापा जी द्वारा निर्देशित पहली हिंदी फ़िल्म ‘हिमालय से ऊंचा’ प्रदर्शित हुई। इस फ़िल्म का निर्माण प्रकाश मेहरा ने किया था। जय शाह बताते हैं, “फ़िल्म ‘हिमालय से ऊंचा’ की तमाम शूटिंग कश्मीर के ऊपरी इलाक़ों में और ग्लेशियरों में की जानी थी। प्रकाश मेहरा के लिए स्वास्थ्य-कारणों से उतनी ऊंचाई पर शूटिंग कर पाना सम्भव नहीं था। साथ ही वो ‘ख़लीफ़ा’ और ‘हेराफेरी’ (दोनों 1976) जैसी फ़िल्मों की शूटिंग में भी व्यस्त थे। इसी वजह से फ़िल्म के हीरो सुनील दत्त के आग्रह पर उन्होंने ‘हिमालय से ऊंचा’ के निर्देशन की ज़िम्मेदारी बी.एस.थापा जी को सौंप दी।“
साल 1977 में बी.एस.थापा जी द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘चरणदास’ प्रदर्शित हुई। इस फ़िल्म का निर्माण भी कंवर महेन्द्र सिंह बेदी और एस.मोहिंदर ने पार्टनरशिप में किया था। विक्रम और लक्ष्मी की मुख्य भूमिकाओं वाली इस फ़िल्म में राजेश रोशन का संगीत था। अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र इस फ़िल्म में मेहमान कलाकार के तौर पर नज़र आए थे। फ़िल्म की क़व्वाली ‘देख लो इश्क़ का मरतबा देख लो’ इन्हीं दोनों पर फ़िल्माई गयी थी। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण सूचना देते हुए एस.एम.एम.औसजा कहते हैं, “अमिताभ बच्चन के अब तक के करियर में उन पर फ़िल्माई गयी ये अकेली क़व्वाली है। येसुदास ने भी अपने पूरे करियर सिर्फ़ यही एक क़व्वाली गायी है। येसुदास और अज़ीज़ नाज़ां क़व्वाल की गायी इस क़व्वाली में येसुदास ने अमिताभ के और अज़ीज़ नाज़ां ने धर्मेन्द्र के लिए प्लेबैक दिया है।“
साल 1980 में प्रदर्शित हुई डायमण्ड जुबली हिट फ़िल्म ‘गंगाधाम’ के निर्देशन के साथ साथ बी.एस.थापा जी ने इसमें अभिनय भी किया था। साल 1982 में उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘लक्ष्मी’ प्रदर्शित हुई। राज बब्बर और रीना रॉय की मुख्य भूमिकाओं वाली इस फ़िल्म का निर्माण रीना रॉय के भाई राजा रॉय ने किया था। जय शाह बताते हैं, “जब फ़िल्म ‘लक्ष्मी’ अनाऊंस की गयी तो पब्लिसिटी में निर्देशक के तौर पर राजकुमार कोहली का नाम दिया गया था। लेकिन बाद में उनकी जगह बी.एस.थापा आ गए। रीना रॉय की बहन बरखा रॉय के अनुसार इसका कारण उन दिनों राजकुमार कोहली का, फ़िल्म ‘बदले की आग’ (1982) के निर्देशन में व्यस्त होना था। गीतकार साहिर लुधियानवी के निधन के क़रीब डेढ़ साल बाद प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘लक्ष्मी’ में उषा खन्ना का संगीत था और इसमें साहिर के लिखे 2 गीत थे। ये साहिर के करियर की आख़िरी फ़िल्म थी।“
1980 के दशक में श्री बी.एस.थापा ने 2 और नेपाली फ़िल्मों का निर्देशन भी किया और दोनों ही सिल्वर जुबली हिट हुईं। ये फ़िल्में थीं, साल 1984 में बनी ‘कांछी’ और 1989 की ‘माया प्रीति’। थापा जी की लिखी कहानियों पर 2 तेलुगू फ़िल्मों ‘सुदीगुन्दालू’ और ‘मारोप्रपंचम’ का भी निर्माण किया गया था। साल 1972 में बनी ‘सुदीगुन्दालू’ को सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था तो ‘मारोप्रपंचम’ को साल 1973-74 के, आन्ध्रप्रदेश सरकार के गोल्डन नन्दी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। साल 1982 में श्री बी.एस.थापा के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘गीतगंगा’ प्रदर्शित हुई थी। इस फ़िल्म में अरूण गोविल, ज़रीना वहाब और काजल किरण की मुख्य भूमिकाएं थीं।
प्रकाश मेहरा के साथ बी.एस.थापा जी के रिश्ते फ़िल्म ‘हिमालय से ऊंचा’ के बाद भी बने रहे। प्रकाश मेहरा की फ़िल्मों ‘ज़िंदगी एक जुआ’ (1992) और ‘बाल ब्रह्मचारी’ (1996) में बी.एस.थापा सेकण्ड यूनिट डायरेक्टर थे। फ़िल्मोद्योग में बी.एस.थापा जी को एक अच्छे शिक्षक तौर पर भी पहचाना जाता है। उन्होंने विनोद खन्ना, लीना चंदावरकर, संजय दत्त, करिश्मा कपूर, बिक्रम सलूजा और सोमी अली जैसे कई सितारों को उनके करियर के शुरूआती दौर में हिंदी-उर्दू शब्दों के सही उच्चारण और संवाद अदायगी की शिक्षा दी। मई 2002 में जब ‘डिजिटल एकैडमी’ की स्थापना हुई तो छात्रों को पढ़ाने के लिए थापा जी को आमंत्रित किया गया। जनवरी 2003 में श्री स.एम.एम.औसजा के बाद श्री जय शाह ने बतौर सेंटर मैनेजर डिजिटल एकैडमी का कामकाज सम्भाला था। फ़रवरी 2005 में डिजिटल एकैडमी छोड़कर वो बतौर सेंटर कण्ट्रोलर ज़ी टी.वी समूह के फ़िल्म स्कूल ‘ज़ीमा’ में गए तो उन्होंने बी.एस.थापा जी को भी ‘ज़ीमा’ में बुला लिया, जहां श्री थापा अगले कुछ सालों तक पढ़ाते रहे।
पत्नी सरस्वती थापा के निधन के बाद श्री बी.एस.थापा ने दूसरा विवाह किया था। पहली पत्नी से थापा जी के 1 बेटी और 3 बेटे हैं। बेटी रेशमा अपने परिवार के साथ दुबई में रहती हैं और तीनों बेटे अरूण, अनिल और अखिल और उनके परिवार मुम्बई में ही हैं। इनमें से किसी का भी सिनेमा से रिश्ता नहीं है। थापा जी की दूसरी पत्नी प्रतिमा कोरियोग्राफ़र थीं। उनकी बेटी सिमरन सुबेदी इन्हीं दूसरी पत्नी से हैं। सिमरन कुछ साल बहरीन एयरलाईंस में नौकरी करने के बाद 4 साल पहले भारत लौट आयी थीं और अब मीरा रोड पर रहती हैं। सिमरन की बेटी डीना ने साल 2006 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘अपना सपना मनी मनी’ में बीमार बच्ची ‘तितली’ की एक अहम भूमिका की थी। सिमरन बताती हैं, “पिताजी मीरा रोड पर ज़्यादा दिन नहीं रह पाए। वर्षा टॉवर में एक साल रहने के बाद वो मीरा रोड पर ही किसी और इलाक़े में रहने चले गए थे। लेकिन अप्रैल 2012 में मां के आकस्मिक निधन की वजह से उन्हें वापस चार बंगला लौट जाना पड़ा जहां वो अब मंझले बेटे अनिल के साथ रहते हैं।“ बीते 3 जुलाई को 92 साल के हो चुके श्री बी.एस.थापा जी आज भले ही फ़िल्मों में सक्रिय न हों लेकिन एक शिक्षक और निर्देशक के तौर पर फ़िल्मों में उनके योगदान के महत्व को नकारा नहीं जा सकता।
(लम्बे अरसे तक दैनिक राजस्थान पत्रिका से जुड़े रहे सुप्रसिद्ध फ़िल्म पत्रकार श्री एम.डी. सोनी के अनुसार 'अंजलि' और 'अर्पण' अलग अलग फ़िल्में नहीं हैं बल्कि 'अंजलि' (1957) का ही नाम साल 1984 में बदलकर 'अर्पण' रख दिया गया था।)
साल 1966 में बी.एस.थापा जी की बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म ‘माईती घर’ रिलीज़ हुई। इस फिल्म की मुख्य भूमिकाओं में माला सिंहा और सी.पी.लोहानी थे। संगीत जयदेव का था। अभिनेता सुनील दत्त और राजिंदर नाथ इस फ़िल्म में मेहमान कलाकार थे और इसमें थापा जी ने भी एक अहम भूमिका निभाई थी। नेपाली भाषा की, प्राईवेट बैनर में बनी यह पहली फ़िल्म प्लैटिनम जुबली हिट थी और इसके गीत भी बहुत पसंद किए गए थे। ‘माईती घर’ की शूटिंग के दौरान ही माला सिंहा और सी.पी.लोहानी में मोहब्बत हुई थी और साल 1968 में उन्होंने शादी कर ली थी।
साल 1973 में बी.एस.थापा जी ने फ़िल्म ‘मन जीते जग जीत’ और 1974 में ‘दु:ख भंजन तेरा नाम’ का निर्देशन किया। पंजाबी भाषा की इन दोनों फ़िल्मों का निर्माण 1950 और 60 के दशक के मशहूर संगीतकार एस.मोहिंदर ने अपने मौसेरे भाई और मशहूर पंजाबी कवि कंवर महेन्द्र सिंह बेदी के साथ मिलकर किया था। साल 1975 में बी.एस.थापा जी द्वारा निर्देशित पहली हिंदी फ़िल्म ‘हिमालय से ऊंचा’ प्रदर्शित हुई। इस फ़िल्म का निर्माण प्रकाश मेहरा ने किया था। जय शाह बताते हैं, “फ़िल्म ‘हिमालय से ऊंचा’ की तमाम शूटिंग कश्मीर के ऊपरी इलाक़ों में और ग्लेशियरों में की जानी थी। प्रकाश मेहरा के लिए स्वास्थ्य-कारणों से उतनी ऊंचाई पर शूटिंग कर पाना सम्भव नहीं था। साथ ही वो ‘ख़लीफ़ा’ और ‘हेराफेरी’ (दोनों 1976) जैसी फ़िल्मों की शूटिंग में भी व्यस्त थे। इसी वजह से फ़िल्म के हीरो सुनील दत्त के आग्रह पर उन्होंने ‘हिमालय से ऊंचा’ के निर्देशन की ज़िम्मेदारी बी.एस.थापा जी को सौंप दी।“
साल 1977 में बी.एस.थापा जी द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘चरणदास’ प्रदर्शित हुई। इस फ़िल्म का निर्माण भी कंवर महेन्द्र सिंह बेदी और एस.मोहिंदर ने पार्टनरशिप में किया था। विक्रम और लक्ष्मी की मुख्य भूमिकाओं वाली इस फ़िल्म में राजेश रोशन का संगीत था। अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र इस फ़िल्म में मेहमान कलाकार के तौर पर नज़र आए थे। फ़िल्म की क़व्वाली ‘देख लो इश्क़ का मरतबा देख लो’ इन्हीं दोनों पर फ़िल्माई गयी थी। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण सूचना देते हुए एस.एम.एम.औसजा कहते हैं, “अमिताभ बच्चन के अब तक के करियर में उन पर फ़िल्माई गयी ये अकेली क़व्वाली है। येसुदास ने भी अपने पूरे करियर सिर्फ़ यही एक क़व्वाली गायी है। येसुदास और अज़ीज़ नाज़ां क़व्वाल की गायी इस क़व्वाली में येसुदास ने अमिताभ के और अज़ीज़ नाज़ां ने धर्मेन्द्र के लिए प्लेबैक दिया है।“
साल 1980 में प्रदर्शित हुई डायमण्ड जुबली हिट फ़िल्म ‘गंगाधाम’ के निर्देशन के साथ साथ बी.एस.थापा जी ने इसमें अभिनय भी किया था। साल 1982 में उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘लक्ष्मी’ प्रदर्शित हुई। राज बब्बर और रीना रॉय की मुख्य भूमिकाओं वाली इस फ़िल्म का निर्माण रीना रॉय के भाई राजा रॉय ने किया था। जय शाह बताते हैं, “जब फ़िल्म ‘लक्ष्मी’ अनाऊंस की गयी तो पब्लिसिटी में निर्देशक के तौर पर राजकुमार कोहली का नाम दिया गया था। लेकिन बाद में उनकी जगह बी.एस.थापा आ गए। रीना रॉय की बहन बरखा रॉय के अनुसार इसका कारण उन दिनों राजकुमार कोहली का, फ़िल्म ‘बदले की आग’ (1982) के निर्देशन में व्यस्त होना था। गीतकार साहिर लुधियानवी के निधन के क़रीब डेढ़ साल बाद प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘लक्ष्मी’ में उषा खन्ना का संगीत था और इसमें साहिर के लिखे 2 गीत थे। ये साहिर के करियर की आख़िरी फ़िल्म थी।“
1980 के दशक में श्री बी.एस.थापा ने 2 और नेपाली फ़िल्मों का निर्देशन भी किया और दोनों ही सिल्वर जुबली हिट हुईं। ये फ़िल्में थीं, साल 1984 में बनी ‘कांछी’ और 1989 की ‘माया प्रीति’। थापा जी की लिखी कहानियों पर 2 तेलुगू फ़िल्मों ‘सुदीगुन्दालू’ और ‘मारोप्रपंचम’ का भी निर्माण किया गया था। साल 1972 में बनी ‘सुदीगुन्दालू’ को सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था तो ‘मारोप्रपंचम’ को साल 1973-74 के, आन्ध्रप्रदेश सरकार के गोल्डन नन्दी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। साल 1982 में श्री बी.एस.थापा के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘गीतगंगा’ प्रदर्शित हुई थी। इस फ़िल्म में अरूण गोविल, ज़रीना वहाब और काजल किरण की मुख्य भूमिकाएं थीं।
प्रकाश मेहरा के साथ बी.एस.थापा जी के रिश्ते फ़िल्म ‘हिमालय से ऊंचा’ के बाद भी बने रहे। प्रकाश मेहरा की फ़िल्मों ‘ज़िंदगी एक जुआ’ (1992) और ‘बाल ब्रह्मचारी’ (1996) में बी.एस.थापा सेकण्ड यूनिट डायरेक्टर थे। फ़िल्मोद्योग में बी.एस.थापा जी को एक अच्छे शिक्षक तौर पर भी पहचाना जाता है। उन्होंने विनोद खन्ना, लीना चंदावरकर, संजय दत्त, करिश्मा कपूर, बिक्रम सलूजा और सोमी अली जैसे कई सितारों को उनके करियर के शुरूआती दौर में हिंदी-उर्दू शब्दों के सही उच्चारण और संवाद अदायगी की शिक्षा दी। मई 2002 में जब ‘डिजिटल एकैडमी’ की स्थापना हुई तो छात्रों को पढ़ाने के लिए थापा जी को आमंत्रित किया गया। जनवरी 2003 में श्री स.एम.एम.औसजा के बाद श्री जय शाह ने बतौर सेंटर मैनेजर डिजिटल एकैडमी का कामकाज सम्भाला था। फ़रवरी 2005 में डिजिटल एकैडमी छोड़कर वो बतौर सेंटर कण्ट्रोलर ज़ी टी.वी समूह के फ़िल्म स्कूल ‘ज़ीमा’ में गए तो उन्होंने बी.एस.थापा जी को भी ‘ज़ीमा’ में बुला लिया, जहां श्री थापा अगले कुछ सालों तक पढ़ाते रहे।
पत्नी सरस्वती थापा के निधन के बाद श्री बी.एस.थापा ने दूसरा विवाह किया था। पहली पत्नी से थापा जी के 1 बेटी और 3 बेटे हैं। बेटी रेशमा अपने परिवार के साथ दुबई में रहती हैं और तीनों बेटे अरूण, अनिल और अखिल और उनके परिवार मुम्बई में ही हैं। इनमें से किसी का भी सिनेमा से रिश्ता नहीं है। थापा जी की दूसरी पत्नी प्रतिमा कोरियोग्राफ़र थीं। उनकी बेटी सिमरन सुबेदी इन्हीं दूसरी पत्नी से हैं। सिमरन कुछ साल बहरीन एयरलाईंस में नौकरी करने के बाद 4 साल पहले भारत लौट आयी थीं और अब मीरा रोड पर रहती हैं। सिमरन की बेटी डीना ने साल 2006 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘अपना सपना मनी मनी’ में बीमार बच्ची ‘तितली’ की एक अहम भूमिका की थी। सिमरन बताती हैं, “पिताजी मीरा रोड पर ज़्यादा दिन नहीं रह पाए। वर्षा टॉवर में एक साल रहने के बाद वो मीरा रोड पर ही किसी और इलाक़े में रहने चले गए थे। लेकिन अप्रैल 2012 में मां के आकस्मिक निधन की वजह से उन्हें वापस चार बंगला लौट जाना पड़ा जहां वो अब मंझले बेटे अनिल के साथ रहते हैं।“ बीते 3 जुलाई को 92 साल के हो चुके श्री बी.एस.थापा जी आज भले ही फ़िल्मों में सक्रिय न हों लेकिन एक शिक्षक और निर्देशक के तौर पर फ़िल्मों में उनके योगदान के महत्व को नकारा नहीं जा सकता।
- शिशिर कृष्ण शर्मा
आभार : बहुमूल्य मार्गदर्शन और सहायता के लिए हम श्री जय शाह, श्री हरमंदिर सिंह ‘हमराज़’, श्री हरीश रघुवंशी और श्री एस.एम.एम.औसजा के आभारी हैं। अंग्रेज़ी अनुवाद के सम्पादन हेतु हम श्री गजेन्द्र खन्ना के विशेष आभारी हैं।
नोट :- इस वेबसाइट में सम्पूर्ण खबर 'बीते हुए दिन' नामक ब्लॉग से उदघृत है। गोरखा व्यक्तित्व की शानदार जानकारी के लिए लेखक/इतिहासकार शिशिर कृष्ण शर्मा जी का गोरखा समाज सदा ऋणी रहेगा।
बीएस थापा जी की बनाई प्रमुख फ़िल्में
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