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स्पेशल आर्टिकल : आपको सोचने पर मजबूर कर देगी भारतीय गोरखा बनाम नेपाली पहचान का दंश


 कुछ बातें आपके अंदर गहरी बैठ जाती हैं। उनसे आप लाख पीछा छुड़ाना चाहें, लेकिन छुड़ा नहीं पाते। मुझे दिल्ली में रहते हुए बीस साल हो गए और इस बीच मैंने बहुत कुछ बदलते देखा। लेकिन इस बीच जिस एक चीज में कोई बदलाव नहीं देखा, वह है पूर्वोत्तर के लोगों के प्रति हमारा व्यवहार। लगभग हफ्ता गुजर गया, लेकिन मेरे कान में आज भी आवाज गूंज रही है- ‘आई एम इंडियन गोरखा … डोंट कॉल मी नेपाली…!’ यानी मैं भारतीय गोरखा हूं, मुझे नेपाली कह कर मत पुकारो…। पूर्वोत्तर से आए हमारे ही देशवासियों के साथ भेदभाव कोई नई बात नहीं है। अपनी शारीरिक बनावट में वे उत्तर भारतीयों से अलग जरूर दिखते हैं, लेकिन किसी भी हाल में उन पर और उनके भारतीय होने पर सवाल नहीं उठना चाहिए। लेकिन क्या करें! एक खास वर्ग है हमारे देश में जो सोचने-समझने के मामले में कुएं के मेंढ़क से अलग नहीं है और अपने दड़बे से बाहर नहीं निकल पाता। वह पढ़ा लिखा तो है, लेकिन वही मानसिकता है कि हमसे बेहतर कौन… हम सब जानते हैं… हमें दुनिया भर की जानकारी है…! ऐसे एक-दो नहीं, ढूंढने  निकलिए तो लाखों मिलेंगे ऐसे ज्ञानी, जिनका किसी पर बस नहीं चलता तो गरीब लाचार मजदूर बिहारी पर अत्याचार करता है।

कुछ दिन पहले मैं दक्षिण दिल्ली इलाके में एक बस में थी। उसमें पूर्वोत्तर के दो युवाओं को बस के कंडक्टर ने जब ‘नेपाली’ कहा तो उनमें से एक ने तेज आवाज में जवाब दिया- ‘मैं नेपाली नहीं हूं… मैं भारतीय गोरखा हूं…।’ छोटी आंखें बड़ी करने की नाकाम कोशिश करते हुए वह बुदबुदाता रहा बहुत देर तक। मैंने पीछे पलट कर देखा कि पूर्वोत्तर के उस आकर्षक युवक के चेहरे पर गुस्सा था। मैं बस कंडक्टर के पास पहुंची तो उसने बड़े प्यार से पूछा कि क्या हुआ… आपको टिकट नहीं मिली क्या? मैंने कहा कि कुछ पूछना है, तो उसने बेफिक्री से कहा कि पूछो। मैंने पूछा कि आपने चाय पी है कभी? उसने जवाब दिया- ‘जी रोज पीता हूं… खूब पीता हूं…!’ मैंने पूछा कि कहां होती है चाय की खेती, तो उसने कहा कि असम सहित नॉर्थ-ईस्ट के कई इलाकों में। फिर मैंने कहा कि आप तो पढ़े-लिखे लगते हैं तो वह बोला कि मैं ग्रेजुएट हूं। उसके बाद मैंने एक दूसरे इंसान की तरफ इशारा किया और कंडक्टर से कहा कि भाई, अगर उस आदमी को बुलाना होता तो कैसे बुलाते। कंडक्टर ने झेंपते हुए कहा- ‘जी… हरी शर्ट वाला भाई ओए…! ऐसे कहता!’ तब मैंने कहा कि ‘फिर ये नेपाली क्यों!’ अच्छा लगा कि मेरी बात कंडक्टर की समझ में आ गई थी।

कुछ दिन पहले एक महिला अपनी पढ़ी-लिखी बेटियों के साथ दिल्ली के कश्मीरी गेट स्टेशन पर मेट्रो में चढ़ी। पूर्वोत्तर की कुछ बच्चियां भी इसी मेट्रो में थीं। वह महिला थोड़े अलग अंदाज वाली हिंदी में उन्हें गंदी उपमाएं दिए जा रही थीं, जिसे वे लड़कियां समझ नहीं पा रहीं थीं। वह उन लड़कियों के लिए ‘बाहर से आई धंधे वाली’ से लेकर ऐसी कई बातें बोल चुकी थी, जिसकी उम्मीद किसी पढ़े-लिखे से नहीं की जा सकती। वे बच्चियां अंग्रेजी में सिर्फ एक बात दोहरा रही थीं- ‘हमें अपने भारतीय होने पर गर्व है।’ इस बीच उस महिला को कई लोग समझाने के लहजे में कह चुके थे कि चुप हो जाइए… आपके साथ भी बेटियां हैं… और ये भी किसी की बेटियां हैं। इन्होंने क्या पहन रखा है, इससे इनका विदेशी होना या चाल-चलन खराब होना तय नहीं होता। लेकिन वह महिला अपने में मग्न थी। उस महिला के साथ तीन लड़कियां थीं।

मेरे सब्र की सीमा खत्म हुई तो मैंने उन लड़कियों से पूछ लिया- ‘आप लोग पढ़ती हैं’ तो उन्होंने ‘हां’ कहा और कॉलेज के नाम भी बताए। जो महिला बोल रही थी, वह उनकी मां थी। मैंने कहा- ‘आप लोग इन्हें समझाइए कि वे गलत बोल रही हैं। उन लड़कियों के कपड़े चाहे जैसे हैं और भले वे हम जैसी नहीं दिख रहीं हैं, लेकिन उनके बारे में आपकी मां गलत बोल रही हैं। आप लोगों को तो समझ होनी चाहिए कि आप बताएं उन्हें!’ उस औरत को अहसास हो चुका था, लेकिन उन्हें चुप होना जरूरी नहीं लग रहा था। फिर मैंने ही उन्हें कहा- ‘आप इतनी देर से उन्हें गलत बोल रहीं हैं, लेकिन उन्होंने अब तक आपको सिर्फ इतना कहा है कि ‘हमें अपने भारतीय होने पर गर्व है!’ क्या आपके दिमाग में यह बात आती है कभी…!’ उसके बाद उनका स्वर धीमा हो गया।

जब मैं दिल्ली आई थी तो लोग अक्सर एक-दूसरे को कह कर कमतर महसूस कराने की कोशिश करते थे कि ‘बिहारी है क्या!’ अब वह थोड़ा कम हुआ है। लेकिन उत्तर-पूर्व के लोगों के प्रति दुर्व्यवहार आज भी आम है। मेरा साफ मानना है कि अब समय आ चुका है जब कोई हमारे ही देश के पूर्वोत्तर के लोगों के खिलाफ कुछ बोले तो हम उनके सामने खड़े हो जाएं।

साभार - जनसत्ता
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