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पुरखों के प्रति... - कविता

मनु मन्जिल

मैं पुरखों के बनाए छत से बरसात को रोकता हूँ
पुरखों के बनाए दीवारों से आँधी को रोकता हूँ
मेरे पास एक घर है जो मेरा बनाया नहीं है
एक ऐश्वर्य है जो मेरा कमाया नहीं है।

मैं उन्हीं की खिड़की से इन्द्रधनुष देखता हूँ
उन्हीं के बरामदे से बादलों के मेले निहारता हूँ
सबेरे जागकर
सुनहरे हिम के चादर से ढँके शिखर देखता हूँ
शाम को तारों का सम्मेलन देखता हूँ
रात को कमरे में ही उतर आते हैं रंगीन सपने
अपने से लगनेवाले उन प्रिय सपनों को देखता हूँ।

हवा को मालूम है मेरा पता
वन के पक्षियों को मालूम है
सूरज को भी मालूम है
प्रेम से पोता गया मेरा आँगन कहाँ है,
मुझे मालूम होने से पहले
दूर से आते बुज़ुर्ग डाकिये को मालूम है मेरा पता
मेरा पता जो मैंने कभी नहीं बताया
मेरा परिचय जो मैंने कभी नहीं बनाया
अपरिचित बहुतों को पता है।

मेरे पास एक बाग़ भी है जो मैंने कभी नहीं लगाया
एक सब्जी का खेत भी है जिसमें मैंने कभी फावड़ा नहीं चलाया
मेरे पुरखों के द्वारा सृजित रंग ही है
जो तुम मेरे बग़ीचे में खेलकर निकलते हुए किरणों में देखते हो
मेरे पुरखों द्वारा जलाए गए दीये का उजाला ही है
जो तुम मेरे घर-आँगन में बिखरे देखते हो
उन्हीं के लय, उन्हीं की ध्वनि, उन्हीं के बोल
तुम मेरी कविताओं में सुनते हो
और मेरे पुरखों द्वारा बनाया गया देश ही है
जहाँ की यात्रा में तुम
बुद्ध और हिमाल के पास खड़े होते हो।

नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी

(साभार - वाणी प्रकाशन)

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