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दार्जिलिंग को अलग गोरखा राज्य बनाने की मांग कैसे उठी ?

हरीशचंद्र चंदोला
दार्जिलिंग जिले को अलग राज्य बनाने के विचार का आरम्भ देहरादून से हुआ था। सन 1923 में अखिल भारतीय गोरखा लीग का जन्म देहरादून में हुआ। यहां से ही इस लीग का काम दार्जिलिंग पहुंचा, जहां 15 मई 1943 में उसकी विधिवत् स्थापना हुई। पृथ्वी नारायण शाह के नेपाल राज्य के गोरखा जिले में रहने वालों को गोरखा कहा जाता था। अंग्रेज़ों की भूटान से 1864 की लड़ाई के बाद दुआर क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकार में गया। दार्जिलिंग जिला 1866 में बना। 1835 तक दार्जिलिंग में केवल 10,000 गोरखा लोग ही थे। अंग्रेजी शासन काल में नेपाली लोगों की, बगल के जिले दार्जिलिंग में आने की, बाढ सी गई और 1876 में गोरखा लोगों की संख्या दार्जिलिंग में 34 प्रतिशत हो गई। दूसरे विश्व युद्ध के बाद गोरखा आंदोलन को अधि बल मिला। गोरखा रेजीमेंटों के सैनिकों ने दक्षिण पूर्व एशिया में उस विश्व महायुद्ध के समय वहां के लोगों को अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ते देखा और उनसे अपने लिए पृथक राज्य की प्रेरणा ली।

बीसवीं शताब्दी के आरंभ में दार्जिलिंग के गोरखा लोगों ने फौज, सरकारी नौकरियों, इत्यादि के द्वारा बहुत प्रगति की और उनके समाज में एक पाश्चात्य-प्रभावित उच्च वर्ग उपजा। सन् 1907 में उस वर्ग के नेताओं ने पहली बार दार्जिलिंग के लिए एक अलग शासन की मांग अंग्रेज सरकार से की। यह मांग गोरखा लोगों से संवाद स्थापति कर की गई। आरंभ में गोरखा नेता रणधीर सुब्बा मांग के लिए हथियार उठाने के पक्ष में थे किन्तु उनके समाज के अन्य नेताओं ने इस तरह के आंदोलन का विरोध किया। 19 दिसम्बर, 1946, को उनके नेता डी.एस. गुरुंग ने भारतीय संविधान सभा के सामने प्रस्ताव रखा कि गोरखा समाज को अल्पसंख्यक वर्ग का दर्जा दिया जाय। उन्होंने पूछा कि यदि एक लाख संख्या वाले आंग्ल-भारतीयों को एक अलग अल्पसंख्यक वर्ग माना जा सकता है और दलितों को हिंदुओं का एक अलग समुदाय तो 30 लाख गोरखा लोगों को एक अलग समुदाय क्यों नहीं माना जा सकता?

किन्तु कुछ गोरखा नेता, जैसे रणधीर सुब्बा, महज उतनी मांग से संतुष्ट नहीं थे। गुरुंग की मृत्यु के कुछ समय बाद रणधीर सुब्बा ने भारत में दार्जिलिंग के गोरखाओं के लिए एक अलग राज्य की मांग उठाई। उसमें उस क्षेत्र के कौन से भाग होंगे उसको भी उन्होंने स्पष्ट किया। उनका कहना था कि उसमें दार्जिलिंग जिला तथा सिक्किम के दो जिले हों या दार्जिलिंग, सिक्किम, जाल्पाइगुरी, दुआर और कूच-विहार उसमें हों या केवल दार्जिलिंग जिला, पजलाइगुरी और कूच विहार से वह बने। 6 अप्रैल, 1947, को दो गोरखा, गणेशीलाल सुब्बा तथा रतनलाल ब्राईण जो उस समय अविभाजित साम्यवादी (कम्यूनिस्ट) पार्टी के नेता थे, ने जवाहर लाल नेहरू, जो तब भारत की अंतरि सरकार के उप-प्रधान थे, को एक स्मरण पत्र दिया जो गोरखास्तान नाम के एक स्वतंत्र राज्य की मांग करता था, जिसमें नेपाल, दार्जिलिंग जिला तथा सिक्किम शामिल किए गए थे। यह मांग केवल ध्यान आकर्षित करने के लिए की गई थी और उसकी कोई बुनियाद नहीं थी। 

१९४० में कम्यूनिस्ट पार्टी ने चाय बगानों में काम करने वाले गोरखा लोगों को संगठित किया और तब 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग के समक्ष दार्जिलिंग जिले को पश्चिम बंगाल में स्वायधता देने की बात उठाई और नेपाली को अनुसूचित भाषा का दर्जा देने की बात कही। तब अखिल भारतीय गोरखा लीग ने दार्जिलिंग को केन्द्र-शासित राज्य बनाने को कहा। 1954 में साम्यवादी पार्टी ने, 1955 में कांग्रेस ने, फिर कांग्रेस, कम्यूनिस्ट पार्टी तथा अखिल भारतीय गोरखा लीग ने मिलकर 1957 में, फिर 1967 तथा 1981 में यूनाइटेड प्रफंट ने, कांग्रेस ने 1968 में और मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी ने 1985 में दार्जिलिंग को स्वायत्तता देने का लालच दिया था। पश्चिम बंगाल सरकार ने नेपाली भाषा को स्थान देने का समर्थन किया। उस राज्य के 1961 सरकारी भाषा कानून के अनुसार दार्जिलिंग, कालिंपोंग तथा कुर्सयोंग के पर्वतीय जिलों, जहां नेपाली लोगों की बहुलता है, में नेपाली को सरकारी भाषा का स्थान दिया गया।

किन्तु उसका वहां व्यावहारि उपयोग किया गया उसे काम में ही लाया गया। दार्जिलिंग के गोरखा अपने आंदोलन को अलग ही मानते हैं। वे उसमें भारत में रहने वाले नेपालियों, अन्य नेपाली भाषा-भाषियों और सिक्किम जहां नेपाली सरकारी भाषा है, को शामिल नहीं करते। उनका कहना है कि उनका आंदोलन भारत से अलग होने का कतई नहीं है। वह केवल पश्चिम बंगाल से अलग होना चाहते हैं। गोरखालैंड के समर्थक अपनी भाषा को नेपाली की बजाय गोरखाली कहते हैं, यद्यपिवे मानते हैं कि दोनों में कोई भाषिक अंतर नहीं है। 1981 की भारतीय जनगणना में नेपाली भाषा को गोरखाली/नेपाली कहा गया था। किंतु आठवीं अनुसूची में 1992 को कुछ परविर्तन किया गया और तब उसे केवल नेपाली कहा गया।

गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट जब दार्जिलिंग के लिए अलग शासन प्राप्त कर सका तो उसने 1986 में एक अलग गोरखालैंड राज्य की मांग उठाई। उसके नेता, सुभाष घीसिंग ने प्रदर्शन शुरू किए जो हिंसक हो गए और राज्य सरकार द्वारा तीव्रता से दबाए गए। प्रदर्शनों ने जिलेभर में जीवन अस्तव्यस्त कर, वहां चाय, पर्यटन और इमारती लकड़ी के मुख्य कामों को ठप कर दिया। पश्चिम बंगाल सरकार जो पहले दार्जिलिंग की स्वायत्तता का समर्थन करती थी अब उसके विरोध में खड़ी हो गई और उसे राष्ट्रविरोधी कहने लगी। उसका कहना था कि दाजिर्लिंग जिले की स्थिति राज्य के अन्य जिलों से बुरी नहीं है और दार्जिलिंग उनसे धनी है। घीसिंग ने अपने समर्थकों से बहुत से वायदे किए कि वह 40,000 गोरखा लोगों को सेना में भर्ती करवा देगा और प्रत्येक गोरखा लेखक को एक लाख रुपए दिला देगा।

दो साल लड़ने-झगड़ने और 200 लोगों के मारे जाने के बाद, पश्चिम बंगाल सरकारों ने दार्जलिंग को स्वायत्त जिला घोषित कर दिया। जुलाई 1989 में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने एक अलग राज्य की मांग त्याग दी और तब अगस्त में स्वायत्त दार्जलिंग पर्वतीय गोरखा जिला परिषद का गठन किया गया, जिसका घीसिंग को प्रघान बनाया गया और जिसके स्वायत्ता अधिकार में विकास कार्यक्रम शिक्षा तथा संस्‍‍कृतिरखे गए। बाद में पंचायत चुनावों को लेकर विरोध उपजा। घीसिंग ने गोर्खा जिला परषिद को देश के पंचायत कानून के बारह रखना चाहा। उस समय के प्रधानमन्त्री राजीव गांधी इससे सहमत थे और उन्होंने 1989 में संविधान में एक संशोधन द्वारा दार्जिलिंग को ही नहीं उत्तरपूर्व के नागालैंड, मेघालय, मिजोरम और मणिपुर के पर्वतीय क्षेत्र को भी उस कानून के बारह रखना चाहा।

किन्तु वह संशोधन पारि नहीं हुआ। तब 1992 में संसद ने संविधान का 73वां संशोधन पारि किया, जिसके द्वारा स्थानीय स्वायत्तता और पंचायतों के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शि की गई। किन्तु दार्जिलिंग को छोड़ उक्त वर्णि सब पर्वतीय क्षेत्र उस संशोधन के बाहर रखे गए। घीसिंग का कहना था कि यह पश्चिम बंगाल सरकार के दबाव पर किया गया और गोरखालैंड राज्य स्थापना के लिए पुन: एक तीव्र आंदोलन छेड़ने की बात की। उसने यह भी कहा कि उसकी पार्टी, गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ग्राम पंचायत चुनावों का बहिष्कार करेगी। किन्तु उसकी पार्टी के एक बड़े भाग ने पंचायत चुनाव का बहिष्कार नहीं चाहा, जिससे पार्टी में दरार पड़ गई और अलग हुए भाग ने एक और दल-अखिल भारतीय गुर्खा लीग, चीतेन शेर्पा के नेतृत्व में बनवाई और उसने पंचायत चुनाव में बहुत सी सीटें जीतीं।

1995 तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि दार्जिलिंग स्वायत्त जिला परिषद से संतुष्ट रह पाएगा या फिर अलग राज्य की मांग उठाएगा? अगस्त 1995 में चीतेन शेर्पा ने राज्य सरकार से शिकायत की कि घीसिंग और उसके शासन ने जिला परिषद के बहुत सारे धन का दुरुपयोग किया किंतु तत्कालीन पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने उस आरोप की जांच कराने का आश्वासन दिया। दोनों गोरखा दलों ने अपनी-अपनी शक्ति प्रदर्शन करने के लिए दार्जिलिंग में बंद का आह्वान किया। घीसिंग का विचार था कि दार्जिलिंग के लोग स्वायत्तता से संतुष्ट रहेंगे। 

किन्तु यह संभव नहीं हुआ और एक और पार्टी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा वहां उभर आई, जिसने गोरखालैंड राज्य के मांग की लड़ाई शुरू कर दी। इस जून में मोर्चे का आंदोलन बहुत हिंसात्मक हो गया. दार्जिलिंग के 12 जून से 60 घंटे बंद के दौरान जून 14 तक मोर्चे के सदस्यों ने पर्यटकों तथा उनकी गाड़ियों पर हमला कर, 28 पर्यटकों तथा पुलिस कर्मियों को घायल कर दिया और 16 गाड़ियों को क्षतिग्रस्त कर दिया। उसने पृथक राज्य के समर्थन में एक जुलूस निकाला था, जिस पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया था।



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