सरकारी उदासीनता से नाराज है देहरादून के गोरखा शहीद कृतज्ञ राना का परिवार, नहीं दिया उचित सम्मान
देहरादून : एक मां के लिए बेटे की शहादत के बढ़कर कुछ नहीं। जिस बेटे ने देश सेवा के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी, उसके बलिदान के सामने सरकारी नौकरी और आर्थिक मदद मां के लिए ज्यादा मायने नहीं रखती। कुछ ऐसा ही सोचना है कारगिल शहीद कृतज्ञ राना की मां का। वह आज भी अपने बेटे को याद कर भावुक हो जाती हैं, लेकिन उन्हें अपने बेटे की शहादत पर गर्व है। देहरादून के शहीद कृतज्ञ राना 3/4 गोरखा रेजिमेंट में तैनात थे। कारगिल युद्ध में उनकी पलटन ने मोर्चा संभाला था। दुश्मनों से लोहा लेते हुए कृतज्ञ शहीद हो गए। कृतज्ञ की शादी को तब एक साल हुआ थे। उन्होंने अपने घरवालों से शादी की सालगिरह पर आने का वादा किया था, लेकिन वह सलामत घर नहीं पहुंच सके। पहली सालगिरह से कुछ दिन पहले तिरंगे में लिपटा उनका पार्थिव शरीर घर पहुंचा तो घरवालों पर गमों का पहाड़ टूट पड़ा।
बचपन से था सेना में जाने का शौक
शहीद कृतज्ञ का परिवार देहरादून के डांडी गढ़ी कैंट में रहता है। डांडी निवासी स्वर्गीय सूबेदार मेजर कुंवर सिंह राना और पदमा राना के बेटे कृतज्ञ राना ने पिता को वर्दी में देख सेना में जाने की ठान ली थी। बकौल मां पदमा राना, कृतज्ञ अपने पिता की सेना की बेल्ट पहनना था। शीशे पर खुद को देखता रहता था। उसे बचपन से ही सेना में जाने का जज्बा था। कई बार सेना की बेल्ट पहनकर कॉलेज भी चला जाता है।
कारगिल युद्ध् में शहीद हुए कृतज्ञ
पिता के कदमों पर चलकर कृतज्ञ लैंसडाउन में अगस्त 1994 में 3/4 गोरखा रेजीमेंट में नायक के पद पर भर्ती हुए। सेना में भर्ती होने के बाद घर परिवार में खुशी का माहौल था। इसी बीच दिसंबर 1998 में कृतज्ञ की सेलाकुई निवासी रोमा से शादी हुई। शादी के बाद कुछ समय घर में गुजारा और फिर सेना से बुलाया आ गया। कारगिल युद्व में उन्हें पलटन के साथ मोर्चा संभालने जाना पड़ा, जहां ऑपरेशन रक्षक में दुश्मनों से मुठभेड़ के दौरान आठ नवंबर 1999 को कृतज्ञ वीरगति को प्राप्त हो गए।
सालगिरह पर आने का वादा पूरा नहीं कर सके
कारगिल से कृतज्ञ का तिरंगे से लिपटा पार्थिक शरीर 10 नवंबर को देहरादून पहुंचा था। उन्होंने दिसंबर में घरवालों से शादी की पहली सालगिरह पर घर आने का वादा किया था, लेकिन उनका तिरंगे से लिपटा हुआ पार्थिव शरीर घर पहुंचा। सेना और स्थानीय प्रशासन ने राजकीय सम्मान के साथ शहीद कृतज्ञ को अंतिम विदाई थी।
पत्नी को मिली सरकारी मदद
पत्नी को सरकार की ओर से आर्थिक मदद दी गई, लेकिन उनकी पत्नी अपने मायके में रहने लगीं। घर में बुजुर्ग मां और शहीद कृतज्ञ के छोटे भाई प्रमोद रहे। प्रमोद अब वह दिल्ली में जॉब कर रहे हैं। प्रमोद की पत्नी भी नौकरी करती हैं। देहरादून स्थित घर में मां अकेली रहती हैं। बहनों के ऊपर मां की देखरेख की जिम्मेदारी, जो बारी-बारी मां के साथ रहती हैं। प्रमोदी और उनकी पत्नी भी मां से मिलने आते रहते हैं।
पुराने घर को छोटे बेटे ने संवारा
गड़ीकैंट में उनका पुराना घर था, जिसे कृतज्ञ के छोटे भाई प्रमोद ने नया रूप दिया है। मां पदमा का कहना है कि उन्हें सरकारी मदद नहीं मिली, जो मिला कृतज्ञ की पत्नी को मिला। न ही उन्हें सरकारी मदद चाहिए, उनका बेटा ही नहीं रहा तो मदद का क्या करें। कहा कि पति की पेंशन से उनका गुजारा चल जाता है। छोटा बेटा और बहनें भी मदद करते हैं।
मुझे गर्व है मेरा बेटा देश के काम आया
मां पदमा राना दूसरे बच्चों को भी सेना में जाने की प्रेरणा देती हैं। कहती हैं उनका बेटा देश के लिए शहीद हुआ है, उन्हें इसका गर्व है। कहा कि पति के बाद सेना में भर्ती बेटे के सहारे जीवन पटरी पर लाने की सोची थी, मगर कारगिल युद्ध में बेटा भी शहीद हो गया। बहू ने बेटे की बरसी होने से पहले ही घर छोड़ दिया। अब मुझे कोई सरकारी मदद नहीं चाहिए। मेरे बेटे की शहादत देश सेवा के काम आई। मुझे बेटे की शहादत पर गर्व है। सरकारी मदद मेरे बेटे की शहादत से बड़ी नहीं हो सकती।
बेटा खो दिया, पौते को देखने के लिए तरस गईं
शादी के एक साल बाद कृतज्ञ की पत्नी ने बेटे को जन्म दिया। कृतज्ञ ने पत्र लिखकर कहा था कि वह अपने बेटे के जन्म की खुशी और शादी की सालगिरह मनाने के लिए छुट्टी आएंगे। मगर, उनकी की यह मुराद पूरी नहीं हो पाई। इसका गम आज भी शहीद की मां के आंखों से छलक रहे आंसुओं में देखा जा सकता है। जैसे तैसे जिंदगी कट रही है। हर पल बेटे की याद सताती रहती है। कृतज्ञ की पत्नी मायके रहती हैं। ऐसे में पदमा राना अपने पौते से भी नहीं मिल पाती हैं। जन्म के बाद आज तक वह अब तक अपने पौते को नहीं देख पाई हैं।
शहीद का प्रोफाइल
- 08 सितंबर 1969 को हुआ शहीद कृतज्ञ राना का जन्म।
- अगस्त 1994 में सेना में भर्ती हुए थे शहीद कृतज्ञ।
- 08 नवंबर 1999 को आतंकियों से मुठभेड़ में शहीद हुए कृतज्ञ।
- मां पदमा देवी, भाई प्रमोद राणा, बहन नताशा, शासा हैं शहीद के परिवार में।
सरकार से नहीं मिला हक़
- शहीद के आश्रितों को नहीं मिली नौकरी।
- पेट्रोल पंप, गैंस एजेंसी नहीं मिली शहीद परिवार को।
- सरकार की तरफ से नहीं बनाया गया कोई स्मारक।
साभार :- हिन्दुस्तान देहरादून संस्करण
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