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सन्नाटे का घर - कविता


बिर्ख खडका डूबसेर्ली

भाई के गीले कपडे
बदला करती थी दीदी
दीदी के केश खींचकर
खेला करता था भाई
किलकारियां खिलती थीं
ठहाके बरसते थे
अब तो रो-रोकर हंसता है
सन्नाटे का घर !

चलती ट्रेन अटक गयी
झाँक कर देखो खिड़की से दूर-दूर तक चुपचाप
निर्दोष खुले हैं घर के आँगन
निर्मोल पड़े हैं आँगन के घर !
प्रसूता की व्यथा-भरी चाह से
पुरखों के पसीने की आह से
सजा-संवरा यह
वारदात की बात नहीं कह पाता
रो-रोकर हंसता है
सन्नाटे का घर !

राज अपना है
नीति भी अपनी है
हाथ अपने हैं
हथियार कहाँ से आये
नासमझ अबूझ सा
रो-रोकर हंसता है
सन्नाटे का घर !

मूल नेपाली से अनुवाद: कवि द्वारा स्वयं

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