क्या अन्ना फैक्टर के चलते हुआ बदलाव ?
वजह साफ है कि अन्ना के सुर में सुर मिलाने से पार्टी को कई राज्यों में राजनीतिक आधार बढ़ाने में मदद मिली है। पार्टी के साथ ही दूसरे संगठनों के स्तर से कराए गए सर्वेक्षणों में यह साबित भी हुआ। जहां तक उत्तराखंड का सवाल है, यहां इस मोर्चे पर पार्टी खुद को असहज महसूस कर रही थी। हाईकमान को यहां सूरते हाल अन्ना फैक्टर को भुनाना मुश्किल लगने लगा। विभिन्न माध्यमों से जो रिपोर्ट हाईकमान तक गई, उसका लब्बोलुअब भी यही था। पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं ने उत्तराखंड को इस कसौटी पर देखा तो उनकी बेचैनी बढ़ गई, जो स्वाभाविक भी थी। यहां मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के निशाने पर पार्टी नहीं मुख्यमंत्री थे। उसने विकास से जुड़े मुद्दों पर नहीं, बल्कि निशंक सरकार की आर्थिक अनियमितताओं को लेकर झंडा बुलंद किया हुआ था। इसी बूते कांग्रेस राज्य सरकार को लगातार कटघरे में खड़ा करती आ रही है। संभवत: पार्टी हाईकमान को भी यह खटका और इससे उस आशंका को बल मिलता दिखा कि मौजूदा हालत में पार्टी अन्ना फैक्टर का लाभ नहीं उठा पाएगी। इस सबके चलते हाईकमान ने राज्य सरकार को भ्रष्टाचार और पारदर्शिता के पैमाने पर आंका तो नेतृत्व परिवर्तन के मूड को निर्णय में बदलने की उसकी हिचकिचाहट भी खत्म हो गई। नए मुखिया का चयन भी अन्ना फैक्टर से अछूता नहीं रहा। आमजन के बीच मेजर जनरल सेनि भुवन चंद्र खंडूड़ी की छवि ईमानदार नेता के रूप में है, अच्छा प्रशासक होने का प्रमाण वह पूर्व में अपने ढाई साल के कार्यकाल में दे चुके हैं। ऐसे में पार्टी को ताजा राजनीतिक परिस्थितियों में खंडूड़ी बेहतर विकल्प के रूप में दिखाई पड़े। पार्टी के अंदरूनी सर्वे में भी यह राय उभर कर सामने आई कि अन्ना फैक्टर को भुनाने के लिए इस वक्त खंडूड़ी को आगे लाना ठीक रहेगा।
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