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माला सिन्हा - गोरखा सुन्दरता का भारतीय चेहरा

गोरखा समाज का बॉलीवुड के साथ नाता बहुत पुराना रहा है और कहते हैं अगर मन में लगन हो और कुछ पाने की कशिश हो तो आपका रंग रूप कोई मायने नहीं रखता. बॉलीवुड में भी सफलता का एक ही पैमाना है और वह है कड़ी मेहनत. कड़ी मेहनत के बल पर ही बॉलीवुड में कई ऐसे नामों ने अपने झंडे गाड़े जो सौन्दर्य के पैमाने पर कुछ खास नहीं थे. आज हम गोरखा लोगों को गोरा तो मानते हैं पर उन्हें खूबसूरत नहीं कहते. ऐसे में बॉलीवुड में भी गोरखा लोगों की सफलता पर पहले शक किया जाता था लेकिन एक अभिनेत्री ने इस मिथ्य को हमेशा झुठलाया है. भारतीय सिनेमा के सुनहरे अध्याय से यह अभिनेत्री हैं माला सिन्हा है.

माला सिन्हा की गिनती भी बॉलीवुड की उन अभिनेत्रियों में होती है, जिन्होंने फिल्मों में लंबा सफर तय किया और अपनी अलग पहचान बनाई. वे बांग्ला फिल्मों से हिंदी फिल्मों में आई थीं. बादशाह से हिंदी फिल्मों में प्रवेश करने वाली माला सिन्हा ने एक सौ से कुछ ज्यादा फिल्में कीं. जब माला सिन्हा हिंदी फिल्मों में काम करने मुंबई आईं, तो लोगों ने कहा था कि यह नेपाली नाक-नक्श वाली लड़की हिंदी फिल्मों में क्या चलेगी? लेकिन उन्हें जो सफलता मिली, उसने फब्तियां कसने वालों के मुंह बंद करा दिए.

माला सिन्हा का बचपन

11 नवंबर, 1936 को जन्मी माला सिन्हा के पिता बंगाली और मां नेपाली थी. उनके बचपन का नाम “आल्डा” था. स्कूल में बच्चे उन्हें “डालडा” कहकर चिढ़ाते थे जिसकी वजह से उनकी मां ने उनका नाम बदलकर “माला” रख दिया. उन्हें बचपन से ही गायिकी और अभिनय का शौक था. उन्होंने कभी फिल्मों में पार्श्व गायन तो नहीं किया पर स्टेज शो के दौरान उन्होंने कई बार अपनी कला को जनता के सामने रखा है.

कॅरियर की शुरूआत
माला सिन्हा ने ऑल इंडिया रेडियो के कोलकाता केंद्र से गायिका के रूप में अपना करियर शुरू किया और जल्दी ही बांग्ला फिल्मों के माध्यम से रुपहले पर्दे पर पहुंच गई. उन्होंने बंगाली फिल्म “जय वैष्णो देवी” में बतौर बाल कलाकार काम किया. उनकी बांग्ला फिल्मों में “लौह कपाट” को अच्छी ख्याति मिली. जब माला सिन्हा हिंदी फिल्मों में काम करने मुंबई आईं तब रुपहले पर्दे पर नरगिस, मीना कुमारी, मधुबाला और नूतन जैसी प्रतिभाएं अपने जलवे बिखेर रही थीं. माला के लगभग साथ-साथ वैजयंती माला और वहीदा रहमान भी आ गईं. इन सबके बीच अपनी पहचान बनाना बेहद कठिन काम था. इसे माला का कमाल ही कहना होगा कि वे पूरी तरह से कामयाब रहीं.

फिल्म “बादशाह” के जरिए माला सिन्हा हिंदी फिल्म के दर्शकों के सामने आईं. शुरू में कई फिल्में फ्लॉप हुईं. फिल्मी पंडितों ने उनके भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगाए. कुछ यह कहने में भी नहीं हिचकिचाए कि यह गोरखा जैसे चेहरे-मोहरे वाली युवती ग्लैमर की इस दुनिया में नहीं चल पाएगी. इन फब्तियों की परवाह न कर माला सिन्हा ने अपने परिश्रम, लगन और प्रतिभा के बल पर अपने लिए विशेष जगह बनाई ।1957 में आई प्यासा ने माला सिन्हा की किस्मत बदल दी. इस फिल्म में उनकी अदाकारी को आज भी लोग याद करते हैं. इसके बाद तो जैसे समय ही बदल गया. फिल्म जहांआरा में माला सिन्हा ने शाहजहां की बेटी जहांआरा का किरदार खूबसूरती से निभाया. फिल्म मर्यादा में उन्होंने दोहरी भूमिका की थी.

60 के दशक में तो उन्होंने कई हिट फिल्में दीं. उनकी यादगार फिल्मों में प्यासा, फिर सुबह होगी, उजाला, धर्मपुत्र, अनपढ़, आंखें, गीत, गुमराह, गहरा दाग, जहांआरा, अपने हुए पराये, संजोग, नीला आकाश, नई रोशनी, मेरे हुजूर, देवर भाभी, हरियाली और रास्ता, हिमालय की गोद में, धूल का फूल, कर्मयोगी और जिंदगी उल्लेखनीय हैं.

गजब की क्षमता

दरअसल, माला सिन्हा में हर तरह की भूमिका निभाने की क्षमता थी. यही वजह है कि उस वक्त के हर डायरेक्टर ने उनके साथ काम किया. केदार शर्मा, बिमल राय, सोहराब मोदी, बी.आर. चोपड़ा, यश चोपड़ा, अरविंद सेन, रामानंद सागर, शक्ति सामंत, गुरुदत्त, विजय भट्ट, ऋषिकेश मुखर्जी, सुबोध मुखर्जी, सत्येन बोस ने माला को हीरोइन बनाया.

पारिवारिक भूमिकाओं में दक्ष

माला सिन्हा ने हर तरह की भूमिकाएं निभाईं, लेकिन ऐसी पारिवारिक फिल्में करने में वे बड़ी दक्ष थीं, जिन्हें देखकर महिलाएं आंसू बहाने लगती थीं. अभिनय की इसी खूबी ने उन्हें उन दक्षिण भारतीय निर्देशकों का प्रिय बना दिया, जो आंसू और कहकहों की कॉकटेल फैमिली ड्रामा में चित्रित करने में माहिर थे. इन दक्षिण भारतीय निर्देशकों में एस.एस. वासन (संजोग), बी.आर. पंथालु (दिल तेरा दीवाना), ए.भीम सिंह (पूजा के फूल), श्रीधर (नई रोशनी), ए.सुब्बाराव (सुनहरा संसार), के. विजयन (ये रिश्ता न टूटे) और ए.त्रिलोक चंद (बाबू) उल्लेखनीय हैं. सच तो यह है कि इन सभी ने माला की आंखें नम करने की क्षमता का भरपूर उपयोग किया. अपने जमाने के हर नामी हीरो के साथ माला सिन्हा ने नायिका की भूमिका निभाई. शायद ही कोई हीरो ऐसा रहा हो, जिसने उनके साथ फिल्म न की हो.

कॅरियर का अंत

माला सिन्हा की पहली फिल्म 1954 में आई थी और 1985 तक वह लगातार काम करती रहीं. 1985 में “दिल तुझको दिया” निपटाने के बाद माला को लगा कि बढ़ती उम्र और ग्लैमर के अभाव में उनका जमाना सिमट गया है. मां और दीदी जैसे कैरेक्टर रोल में वे आना नहीं चाहती थीं. इसलिए ऐसे प्रस्ताव न मानकर उन्होंने फिल्मों से छुट्टी ले ली. 1991 में राकेश रोशन उन्हें “खेल” में फिर से कैमरे के सामने लाने में सफल रहे. इसके बाद उन्होंने दो फिल्में “राधा का संगम” (1992) और “जिद” (1994) कीं, उसके बाद फिल्मों को अलविदा कह दिया.

उनकी कुछ खास फिल्में प्यासा, धूल का फूल, पतंगा, हरियाली और रास्ता, अनपढ़, गुमराह, बहूरानी, जहांआरा, नीला आकाश, हिमालय की गोद में, बहारें फिर भी आएंगी, मेरे हुजूर, संजोग, 36 घंटे आदि हैं.

माला सिन्हा का निजी जीवन

नेपाली मां और भारतीय पिता की बेटी माला की मुलाकात एक नेपाली युवक चिदंबर प्रसाद लोहानी से हुई. दोनों का परिचय मित्रता में बदला और माता-पिता का आशीर्वाद पाकर दोनों का विवाह 1968 की 16 मार्च को मुंबई में हो गया. आज उनकी एक बेटी हैं जिनका नाम प्रतिभा सिन्हा है और वह भी एक्टिंग से जुड़ी हैं।

(साभार - जागरण)

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