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MLA ज़िम्बा ने PM मोदी को सिक्किम से विलय का विरोध करते हुए लिखा पत्र, कहा "गोरखालैंड ही एकमात्र संवैधानिक समाधान"

दार्जिलिंग : क्षेत्रीय विधायक नीरज ज़िम्बा ने भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी को औपचारिक रूप से पत्र लिखकर यह अवगत कराया है कि दार्जिलिंग और कालिम्पोंग को सिक्किम राज्य में मिलाने के संबंध में जो प्रस्ताव हाल ही में सामने आए हैं, वे पूरी तरह से असंवैधानिक, राष्ट्रहित के प्रतिकूल और जनभावनाओं से विमुख हैं।

ऐसे प्रस्ताव, भले ही सांस्कृतिक समानताओं के नाम पर प्रस्तुत किए गए हों, ना तो भारतीय गोर्खा समुदाय की वास्तविक आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करते हैं और ना ही किसी स्थायी राजनीतिक समाधान की दिशा में ले जाते हैं। इसके विपरीत, नीरज ज़िम्बा ने एक बार फिर से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 के अंतर्गत एक अलग गोर्खालैंड राज्य की हमारी दीर्घकालीन मांग को दोहराया है—यह मांग दशकों के शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक संघर्ष, संवैधानिक आग्रह और पहचान की न्यायोचित पुकार से उत्पन्न हुई है।

ज़िम्बा ने बताया कि मैंने अपने पत्र में मैंने प्रधानमंत्रीजी का ध्यान कई गंभीर बिंदुओं की ओर आकर्षित किया है। दार्जिलिंग और कालिम्पोंग को सिक्किम में मिलाने का प्रस्ताव न तो संवैधानिक आधार पर खरा उतरता है और न ही व्यावहारिक दृष्टि से विवेकपूर्ण है। यह अनुच्छेद 371F के विशेष प्रावधानों में हस्तक्षेप करता है, जो सिक्किम राज्य को विशिष्ट संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करता है। इस प्रकार का पुनर्गठन वहाँ की जनजातीय संरचना और कानूनी संतुलन को गहराई से प्रभावित करेगा।

यह प्रस्ताव राष्ट्र की सुरक्षा के लिए भी एक गंभीर जोखिम पैदा करता है। सिक्किम एक संवेदनशील सीमा राज्य है, जिसकी सीमाएँ चीन, नेपाल और भूटान से लगी हुई हैं। ऐसे राजनीतिक रूप से अस्थिर क्षेत्रों को इस सामरिक क्षेत्र में सम्मिलित करना, सिलीगुड़ी कॉरिडोर जैसे रणनीतिक मार्ग की सुरक्षा के लिए संकट पैदा कर सकता है।

ज़िम्बा ने कहाँ कि मैं सरकार को यह भी स्मरण कराया है कि मार्च 2011 में स्वयं सिक्किम विधानसभा ने सर्वसम्मति से गोर्खालैंड राज्य की मांग का समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया था। यदि सिक्किम वास्तव में विलय चाहता तो उसका चुना हुआ सदन अलग राज्य की मांग क्यों करता? विधानसभा में पारित प्रस्ताव मात्र औपचारिकता नहीं, जनता की प्रतिनिधिक भावना होते हैं।

नीरज ज़िम्बा ने आगे कहा कि दार्जिलिंग क्षेत्र का निर्वाचित जनप्रतिनिधि और अपने समुदाय का आजीवन सेवक होने के नाते, मैंने स्पष्ट किया है। हम स्थानांतरण नहीं, बल्कि पहचान की मान्यता चाहते हैं। हमने बंगाल की राजनीतिक अधीनता का विरोध केवल किसी और के अधीन होने के लिए नहीं किया, बल्कि भारत संघ के भीतर अपना भविष्य स्वयं निर्धारित करने के लिए किया है। हम गोर्खालैंड चाहते हैं—ना कृपा से, ना टकराव से, बल्कि संविधान के रास्ते।

ज़िम्बा ने माननीय प्रधानमंत्री से यह भी अनुरोध किया है कि दार्जिलिंग और कालिम्पोंग के भविष्य से संबंधित कोई भी निर्णय, बिना जनप्रतिनिधियों और वास्तविक सरोकारवालों से परामर्श लिए, नहीं लिया जाना चाहिए। राजनीतिक शॉर्टकट कभी भी संवैधानिक प्रक्रिया का विकल्प नहीं हो सकते। जो प्रस्ताव निजी महत्वाकांक्षा या अप्रामाणिक मंचों से उपजते हैं, उन्हें गंभीर राष्ट्रीय मामलों में स्थान नहीं दिया जाना चाहिए।

विधायक ज़िम्बा ने कहा कि मुझे विश्वास है कि माननीय प्रधानमंत्री जी, जिनकी नेतृत्वशक्ति सदैव संविधान और राष्ट्र की एकता के पक्ष में रही है, इस अति संवेदनशील विषय को गंभीरता, संवेदनशीलता और संवैधानिक दूरदृष्टि के साथ देखेंगे। गोरखालैंड किसी विभाजन की नहीं, बल्कि समावेशन की मांग है। यह भूगोल का नहीं, न्याय का प्रश्न है।

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